नई दिल्ली: कुछ आंतरिक दस्तावेजों के मुताबिक बाजार के मूल्यों से किसानों को संरक्षण देने वाली एक योजना में धांधली हो सकने की तमाम भीतरी चेतावनियों और मध्य प्रदेश में इस योजना के विनाशकारी परीक्षण के ठोस सबूतों को दरकिनार करते हुए मोदी सरकार ने इस योजना को राष्ट्रीय स्तर पर लागू कर दिया।

बीजेपी द्वारा शासित उत्तर प्रदेश को मिलाकर अन्य प्रदेशों की इस चेतावनी के बावजूद, की इस योजना का इरादा किसानों को नहीं बल्कि भ्रष्ट व्यापारियों को सहयोग प्रदान करने का है, इस योजना को लागू कर दिया गया। अधिकांश राज्यों ने इस योजना का विरोध किया था फिर भी केंद्र सरकार ने इसको राज्यों के ऊपर थोप दिया।

बाजार के मूल्यों से संरक्षण प्रदान करने वाली ये योजना, जिसे आधिकारिक तौर पर प्राइस डेफिशियन्सी पेमेन्ट सिस्टम (PDPS) के नाम से जाना जाता है, एक त्रि-आयामी पीएम आशा योजना का हिस्सा थी जिसको 2019 के आम चुनावों के ठीक पहले किसानों को दालों और तिलहन के दामों में होने वाले भीषण उतार-चढ़ाव से संरक्षित करने के उद्देश्य से लागू किया गया था। इस योजना के तहत किसानों से वादा किया गया था की अगर किसान की आय सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से कम होगी तो सरकार उसकी पूर्ति कर देगी।

इस मूल्य संरक्षण योजना को मध्य प्रदेश की राज्य सरकार ने लागू करने के छह महीने के भीतर ही वापस ले लिया था इसके बावजूद केंद्र सरकार ने इस योजना को अपना लिया। मध्य प्रदेश में हुआ ये था की अपनी बनावट में खामियों के चलते यह योजना पटरी से उतर गयी थी जिससे व्यापारियों को दाल और तिलहन के मूल्यों के साथ धांधली करने का मौका मिल गया था।

कैबिनेट के दस्तावेजों के साथ-साथ आधिकारिक दस्तावेज, जिनको पहले रिपोर्ट नहीं किया गया है, इस बात पर प्रकाश डालते है की ये पता लगाने के लिये की मध्य प्रदेश में आखिर क्यों मूल्य संरक्षण योजना असफल हो गयी केंद्र ने एक अध्ययन कराया था। इस अध्ययन में और साथ में नीति आयोग की तरफ से सरकार को ये सुझाव दिया गया था की इस मूल्य संरक्षण योजना का राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार करने से पूर्व भ्रष्टाचार से बचने के लिये हिफाजती तौर पर कुछ कदम उठाए जाने चाहिए और योजना के मॉडल पर दोबारा से विचार किया जाना चाहिए लेकिन इन सुझावों के बावजूद सरकार ने इस योजना को लेकर जल्दबाजी दिखाई।

दस्तावेज इस बात को उजागर करते है की अधिकांश प्रदेशों की तरफ से इस योजना का विरोध किये जाने पर योजना को समय लेकर दुरुस्त करने की बजाए इस योजना की बनावट में खामियां के बावजूद सरकार ने योजना में पारदर्शिता बनाए रखने की जिम्मेदारी राज्यों के ऊपर डाल दी।

इसके आगे दस्तावेज इस बात की भी पुष्टि करते है की सरकार ने इस बात की भी पूरी तरीके से अनदेखी की कि यह योजना उन करोड़ों किसानों पर लागू नहीं होती है जो जमीन किराये पर लेकर खेती करते हैं। साथ ही साथ इस योजना में सरकार ने इस बात को भी स्पष्ट तरीके से व्यक्त नहीं किया की इस योजना के तहत किसान के कुल घाटे के मात्र एक चौथाई घाटे की क्षतिपूर्ति के लिये ही मुआवजा दिया जायेगा। यदि प्रदेश सरकार किसान के उत्पाद में हुए कुल घाटे में से एक चौथाई घाटे से ज्यादा के लिये मुआवजा देना चाहती है तो केंद्र सरकार किसी भी प्रकार की सहायता प्रदान नहीं करेगी और प्रदेश सरकार को पूरे  मुआवजे का भार अकेले ही वहन करना पड़ेगा। मुख्यतः ये पूरी स्कीम इस तरीके से तराशी गई थी की किसान अपनी पूरी पैदावार के लिये मुआवजा ना लेने के लिये मान जाये।

आन्तरिक दस्तावेज यह दिखाते हैं की जब सरकार बड़े जोर-शोर से किसानों की आमदनी को दोगुना करने की अपनी मंशा व्यक्त कर रही थी तब सरकार इस बात को लेकर पुख्ता नहीं थी कि वो वास्तव में ऐसा करना चाहती है। दस्तावेजों के मुताबिक आंतरिक तौर पर किसानों की आमदनी के दोगुना होने के परिणामों- किसानों की क्रय शक्ति के बढ़ने से लेकर मुद्रास्फीति तक- को लेकर सरकार बेहद परेशान थी।

अर्थशास्त्र में इस तरह की बहसे सामान्य है लेकिन सरकार के भीतर ये स्पष्टता ना होने से की किसानों के हाथों में और अधिक पैसा दिया जाये या फिर मुद्रास्फीति को रोका जाये, किसानों को प्रतिकूल दशाओं का सामना करना पड़ा। किसानों को अधिक लाभ देने का वादा किया गया था लेकिन बाद में सरकार खेती के उत्पादों के उपभोक्ता मूल्यों को कम करने की अपनी प्रतिबद्धता से मुकर गयी।

नरेंद्र मोदी सरकार की इस बात के लिये लगातार आलोचना की जाती रही है की ये सरकार नीतियां बनाने के पहले अपने राजनीतिक लाभ के लिये नीतियों की घोषणा कर देती है। 2016 में रातो-रात ऊँचे मूल्य वाली मुद्रा के विमुद्रीकरण से उपजी आर्थिक उथापथल और इस विमुद्रीकरण से किसी भी उस उद्देश्य की पूर्ति ना हो पाना जिसका दावा किया गया था, ऊपर लिखी मोदी सरकार की आलोचना की पुष्टि करता है।

रिपोर्टस कलेक्टिव  की पड़ताल यह दिखाती है की किस प्रकार से आवेग में आकर नीति बनाने की वजह से भ्रष्ट व्यापारियों के लिये यह लगभग संभव हो गया था की वो सार्वजनिक क्षेत्र के पैसे को ले उड़े। लेकिन आखिरी में किसी सुधार की वजह से नहीं बल्कि सरकार के खुद के वित्तीय कुप्रबंधन की वजह से भ्रष्टाचार हो सकने की संभावनाओं से भरपूर ये स्कीम रास्ते में ही रुक गयी।

द कलेक्टिव ने विस्तृत तौर पर केंद्र सरकार के कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय और उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय को सवाल भेजे थे लेकिन इन सवालों पर द कलेक्टिव को कोई उत्तर प्राप्त नहीं हुआ।

नीतिगत स्तर पर पहली बड़ी गलती

2016 में मोदी सरकार ने किसानों को इस बात के लिये राजी कराने की कोशिश करना शुरू किया की वे दालों और तिलहन की पैदावार बढ़ा दे क्योंकि इन फसलों की पिछले वर्षों में पैदावार कम होने की वजह से इन फसलों के बाजार में मूल्य बढ़ गये थे। 

केंद्र सरकार ने तिलहन और चुनिंदा दालों के न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ा दिये। न्यूनतम समर्थन मूल्य उस मूल्य को कहते है जिस मूल्य पर सरकार किसानों के उत्पाद को खरीदने के लिये प्रतिबद्ध होती है। सरकार की तरफ से फसलों की एक सुनिश्चित कीमत मिलने के आश्वासन की वजह से किसान सरकार द्वारा सुझायी गयी फसलों, दालें और तिलहन, को और अधिक उगाने के लिये मान गये।

न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर दिये गये सरकारी आश्वासन की वजह से दालों और तिलहन की घरेलू पैदावार बढ़ गयी। वर्ष 2016-17 में पिछले वर्ष की अपेक्षा दालों की 41.5% और तिलहन की 24% अधिक पैदावार हुयी।

इसके बाद केंद्र सरकार ने दोनों, दालों और तिलहन, का बहुत विशाल मात्रा में अंतरराष्ट्रीय बाजार से आयात करने पर अपनी हामी भर दी, सरकार की इस हामी की विशेषज्ञों की तरफ से आलोचना भी की गयी। इससे हुआ ये की दालों और तिलहन की भारत के बाजार में बाढ़ आ गयी और परिणामस्वरूप बहुत से किसानों को अपनी फसल को खुले बाजार में न्यूनतम समर्थन मूल्य से बहुत नीचे औने-पौने दाम पर बेचना पड़ा।

प्राथमिक तौर पर कृषि व्यापार नगद पैसे के आधार पर होता है इसलिये जब नवंबर 2016 को रातों रात ऊँचे मूल्य वाली 80% मुद्रा को विमुद्रीकृत कर दिया गया तो बाजार में फसलों की आपूर्ति की भरमार हो गयी और तिलहन और दालों का बाजार और भी ज्यादा भर गया जिससे किसानों की पूरी समस्या ने और भी भयंकर रूप अख्तियार कर लिया।

मध्य प्रदेश भारत में दाल और तिलहन के उत्पादन का प्राथमिक केंद्र है इसलिये उपरोक्त लिखित सभी समस्याओं ने मध्य प्रदेश के किसानों को गुस्से से भर दिया। महीनों तक फसलों के कम दाम मिलने की शिकायत करने के बाद सरकार से फसलों के बेहतर भाव मिलने की मांग को लेकर किसान जून 2017 में सड़कों पर आ गये। किसानों की सरकार से मांग थी की 2006 के एम.एस.स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग के सुझावों के आधार पर सरकार उनकी फसलों के दाम तय करे और उनके कर्जे माफ करे।

लेकिन उस समय मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, जो वर्तमान में केंद्रीय कृषि मंत्री है, की सरकार किसानों की मांगों के आगे टस से मस नहीं हुयी। किसानों और सरकार के बीच का ये गतिरोध दोनों के बीच हिंसक झड़प में तब्दील हो गया और 6 जून 2017 को पुलिस ने 6 किसानों को गोली मार दी और झड़प में 6 किसान घायल हो गये।

प्रदेश में चुनाव मात्र एक साल की दूरी पर थे और इस बीच उग्र किसानों को शांत करने के लिये सरकार ने  सितंबर 2017 में भावांतर भुगतान योजना अर्थात प्राइस डेफिसिएन्सी पेमेंट सिस्टम की घोषणा कर दी।

इस योजना के अंतर्गत किसानों को सरकार के द्वारा निर्धारित बाजारों में अपनी उपज को बेचना था जहां पर सरकार तो सीधे तौर पर किसानों की उपज को नहीं खरीद रही थी बल्कि सरकार ने ये वादा किया था की अगर किसान की फसल का बाजार मूल्य न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम होगा तो सरकार किसान को विक्रय मूल्य और न्यूनतम समर्थन मूल्य के बीच के अंतर को अदा कर देगी।

यह योजना मात्र 6 महीने तक ही चली और फिर राज्य सरकार ने इसे बंद कर दिया। हुआ ये की व्यापारियों ने बहुत ही ताबड़तोड़ तरीके से इस पूरी योजना और किसानों की फसल के बाजार मूल्य में हेराफेरी करना शुरू कर दिया। व्यापारियों को पता था की राज्य सरकार किसानों को मुआवजा देने के लिये आगे आयेगी ही इसलिये सांठ-गांठ करके व्यापारियों ने किसानों की उपज को बहुत ही मामूली दाम पर खरीदना शुरू कर दिया जिससे झूठे तौर पर कम किये गये अनाज के बाजार मूल्य और न्यूनतम समर्थन मूल्य के अंतर को पाटने के लिये सरकार से मुआवजे के नाम पर बहुत ज्यादा पैसा मांगा जाने लगा। बाद में जानकारों और विपक्ष ने रेखांकित किया की जब ये योजना बंद हो गयी थी तब अनाज के बाजार मूल्य एक बार फिर से बढ़ गये थे। हालांकि बीजेपी शासित मध्य प्रदेश में ये योजना बुरे तरीके से लड़खड़ा गयी थी ये योजना मोदी सरकार को काफी पसंद आयी।

उस समय के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपने 2018-19 के बजट भाषण में कहा था की ''ये जरूरी है की अगर कृषि उत्पादों के बाजार में दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम है तो या तो सरकार को कृषि उत्पाद को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदना चाहिए या फिर इस प्रकार से काम करना चाहिये कि वो किसानों को किसी दूसरे तरीके से न्यूनतम समर्थन मूल्य दे सके''।

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए जेटली कहा था की ''नीति आयोग केंद्र और राज्य सरकारों से परामर्श करके कोई सरल रास्ता निकालेगा जिससे किसानों को उनकी उपज का पर्याप्त मूल्य मिल सके''।

बजट भाषण के तीन दिन बाद केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने किसानों की फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य को सुनिश्चित करने के लिए तीन विकल्प सुझाते हुए सभी राज्यों को पत्र लिखा: 1) राज्यों के द्वारा फसलों के अधिसूचित दाम के आधार पर फसलों की खरीद का विकेन्द्रीकरण किया जाये और राज्यों को हुए नुकसान की प्रतिपूर्ति कर दी जाये, 2) प्राइस डिफिसियेंसी पेमेंट सिस्टम (PDPS) का प्रयोग किया जाये, 3) प्राइवेट क्षेत्र के व्यापारियों को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल खरीदने के लिये बुलाया जाये।

आधिकारिक दस्तावेज कहते है की सरकार का PDPS योजना को पूरे देश में लागू करने का विचार मध्य प्रदेश के मॉडल के ऊपर आधारित था।

केंद्र सरकार ने भीतरी तौर पर कहा की पीएम आशा योजना का अवयव, PDPS, मध्य प्रदेश के मॉडल पर आधारित है।

किसानों के अधिकारों के लिये कार्य करने वाली अनुभवी कार्यकर्ता कविता कुरूगांती कहती हैं की ''मध्य प्रदेश की योजना त्रुटिपूर्ण थी लेकिन हरियाणा ने इस योजना को कही अच्छे ढंग से लागू किया। PDPS योजना अपने आप में कोई खराब योजना नहीं है लेकिन मध्य प्रदेश ने इस योजना पर जिस तरह से काम किया वो बुरा था। प्रत्येक किसान को अपनी उपज की एवज में मिलने वाले मूल्य में हुए घाटे को मापने की बजाए इस स्कीम को फसल बीमा योजनाओं की तरह भी संचालित किया जा सकता था जहां पर पंचायतों को एक भौगोलिक इकाई माना जाता है''।

हरियाणा में भी बीजेपी की सरकार है लेकिन हरियाणा सरकार ने PDPS योजना का एक अपना स्वयं का संस्करण लागू किया। हरियाणा के PDPS संस्करण की अवधारणा हलांकि मध्य प्रदेश के समान ही थी लेकिन हरियाणा की योजना में किये गये सुधारों की वजह से इसमें किसी भी प्रकार की गुटबाजी करके बाजार में कृषि उत्पादों के मूल्यों को नियंत्रित करने और सरकारी दफ्तरों की तरफ से लेटलतीफी करने की संभावना बेहद कम हो गयी। लेकिन हरियाणा के एक कुशल PDPS संस्करण का विकल्प होने के बावजूद केंद्र सरकार भ्रष्टाचार से ओत-प्रोत मध्य प्रदेश के PDPS संस्करण के ऊपर अपना भरोसा जताती रही।

मार्च 2018 में सरकार के आदेशानुसार नीति आयोग ने 22 राज्यों और 4 केंद्र शासित प्रदेशों से इस विषय पर बात की कि न्यूनतम समर्थन मूल्य के कौन से मॉडल को लागू किया जा सकता है। इन सभी प्रदेशों में मात्र चार प्रदेशों ने PDPS के ऊपर अपनी हामी भरी और बाकियों ने इसको सिरे से खारिज कर दिया। उत्तर प्रदेश ने PDPS पर अपनी आलोचनात्मक टिप्पणी करते हुए कहा: ''उत्तर प्रदेश गुटबंदी के मुद्दे के कारण PDPS (भावांतर) को लागू करने के पक्ष में नहीं है, और PDPS योजना (कृषि उत्पादों के) वास्तविक मूल्य के विकास को बाधित कर सकती है''।

मध्य प्रदेश के मॉडल के खिलाफ दोनों, केंद्र सरकार के विभागों और बीजेपी शासित उत्तर प्रदेश सरकार, ने चेतावनियां जारी की थी।

यहां पर एक बीजेपी शासित प्रदेश यह कह रहा था की किसी स्कीम की वजह से किसी दूसरे बीजेपी शासित प्रदेश में भ्रष्टाचार हो चुका है। यह देखना बेहद दुर्लभ है की किसी पार्टी की सरकार ने किसी प्रदेश में चल रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ खुलकर बोलना शुरू कर दिया हो, खासकर की तब जब भ्रष्टाचारी प्रदेश में समान पार्टी की सरकार हो।

बहुत सारे राज्य इस प्रकार के मॉडल के भी पक्ष में थे की किसानों से उनकी उपज को राज्य सरकार के द्वारा निर्धारित किये गये न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदा जाए और केंद्र सरकार आंशिक रूप से इस खरीद पर ऊपर हुए खर्चे का जिम्मा उठा ले।

विचित्र सुझाव

इस पूरे वाकये के दौरान नीति आयोग ने दोनों तरफ का पक्ष लेना जारी रखा। एक ओर तो नीति आयोग ने PDPS को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने का सुझाव दे दिया वही दूसरी ओर राज्यों को ये स्वतंत्रता भी दे दी की वे अपने अनुसार PDPS या फिर फसलों की खरीद के लिये विकेन्द्रीकृत मॉडल वाली योजना का चुनाव कर ले।

यहा तक की जब नीति आयोग ने PDPS मॉडल का सुझाव दिया तब आयोग ने इस बात की आशंका भी व्यक्त की कि PDPS में व्यापारियों के द्वारा भ्रष्टाचार और हेराफेरी भी हो सकती है। नीति आयोग ने इस बात को स्वीकार किया की PDPS योजना किसानों के दालों और तिलहन के विक्रय मूल्यों को बढ़ाने के अपने उद्देश्य में असफल हो सकती है।

नीति आयोग ने स्वीकार किया की ''सरकार द्वारा चुकाये जाने वाले मूल्य के अंतर (बाजार मूल्य और न्यूनतम समर्थन मूल्य के बीच का) का फायदा लेने के लिए व्यापारियों द्वारा (बाजार) मूल्य में हेरफेर की संभावना है''।

PDPS के औचित्य के बारे में नीति आयोग की इतनी खरी स्वीकृति इस बात को स्पष्ट रूप से दर्शाती है की PDPS के रूप में सरकार ने ऐसी सरकारी योजना का खाका खींच दिया था जिसका उद्देश्य तो किसानों को लाभ पहुंचाना था लेकिन वास्तव में इस योजना से व्यापारियों की जेबें भरने वाली थी।

बड़ी ही साफगोई के साथ PDPS के औचित्य के विषय में नीति आयोग की ऐसी स्पष्ट स्वीकृति के बावजूद नीति आयोग का ही मूल्य संरक्षण योजना, PDPS, के पक्ष में हामी भर देना काफी विचित्र था। स्वतंत्र और विश्वसनीय जानकारों ने भी मध्य प्रदेश के PDPS मॉडल के बारे में चेताया था।

नीति आयोग ने अपनी टिप्पणियों में यह तर्क दिया था की यह योजना संभवतः किसानों की साहयता ना करे लेकिन विशेषज्ञ समूहों के द्वारा सुझाये गये अन्य विकल्पों की अपेक्षा यह योजना निश्चित तौर पर काफी सस्ती है।

अप्रैल 2018 में भूतपूर्व केंद्रीय कृषि सचिव सिराज हुसैन ने भारतीय अनुसंधान परिषद के इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशन्स के क्षेत्र में कार्य करने वाले शोधार्थियों के साथ मिलकर मध्य प्रदेश की स्कीम पर एक लेख प्रकाशित किया था। ये सभी लेखक अपने लेख में इस नतीजे पर पहुंचे थे की ''इस स्कीम में व्यापारियों और मंडी में छोटे स्तर पर काम करने वाले लोगों के द्वारा फेरबदल किया जा सकता है और सरकार के अच्छे इरादों के बावजूद संभवतः ये स्कीम किसानों से ज्यादा मंडी के व्यापारियों को लाभ पहुंचाएगी''।

इतना ही नहीं मध्य प्रदेश की इस योजना में भ्रष्टाचार की समस्या के अतिरिक्त शोधार्थियों ने पाया था की इस योजना के लिये प्रदेश के किसानों के एक बहुत छोटे से हिस्से ने ही अपना पंजीकरण कराया था। इस योजना में महज तमाम छेदों की भरमार नहीं थी बल्कि स्कीम का लाभ उठाने की राह में किसानों के लिये तमाम रोड़े भी थे। योजना में शामिल होने के लिए किसानों को एक बहुत ही बोझिल पंजीकरण प्रक्रिया से होकर गुजरना था।

किसानों को पहले तो वेबसाइट पर भूमि और उसके स्वामित्व के ब्योरे के साथ-साथ आधार नंबर और बैंक के खाते के ब्योरे को दर्ज कराना था। इसके अलावा किसानों को वेबसाइट अपनी उगाई हुई फसल का ब्योरा भी भरना था जहां किसानों को भरने के लिए मात्र आठ फसलों के विकल्प दिए गए थे। इसके बाद किसानों को अपनी उपज को सरकार द्वारा निर्धारित बाजार (APMC) में बेच कर उसके विक्रय मूल्य के बारे में सरकार को सूचित करना था।

जब केंद्र सरकार मध्य प्रदेश के मॉडल का राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार कर रही थी सरकार ने इस मॉडल के पूरी तरह से बंटाधार हो चुकने के सबूतों को लगातार नजरअंदाज किया। उत्तर प्रदेश का इस मॉडल के ऊपर सुझाव, अधिकांश राज्यों की इस मॉडल के ऊपर व्यक्त की गयी शंका और स्वतंत्र एवं प्रतिष्ठित समीक्षाएं मध्य प्रदेश के मॉडल में मौजूद तमाम खामियों को उजागर कर रही थी।

मध्य प्रदेश की स्कीम को केंद्र सरकार की तरफ से मंजूरी मिलने के बाद कमान केंद्र सरकार के कृषि मंत्रालय के पास चली गयी और जल्द ही इस स्कीम की पूरी अवधारणा को मूर्त रूप देकर कृषि मंत्रालय ने 'पीएम आशा' स्कीम’ को प्रस्तावित कर दिया और इस प्रस्तावित स्कीम के विवरण को मंत्रालयों के आपसी परामर्श के लिये जारी कर दिया गया।

पीएम आशा स्कीम तीन घटकों वाली एक व्यापक स्कीम थी: पहला घटक दशकों पुरानी फसलों की सीधी खरीद की योजना का था जिसके अंतर्गत सरकार किसानों की उपज को सीधे तौर पर खरीदती है। दूसरा घटक PDPS योजना का था जो मध्य प्रदेश की भावांतर भुगतान योजना पर आधारित थी। और तीसरा घटक एक प्रायोगिक योजना का था जिसके माध्यम से इस बात की जांच की जानी थी की प्राइवेट क्षेत्र के द्वारा किसानों की उपज को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने की योजना वास्तव में कितनी व्यावहारिक है।

चौंकाने वाली बात ये है की इस पीएम आशा योजना में अनाज की खरीद को विकेंद्रीकृत करने के लिये किसी मॉडल का जिक्र नहीं था हालांकि इस प्रकार के मॉडल की मांग लगभग सभी राज्यों की तरफ से की गयी थी। केंद्र सरकार ने इस बारे में कोई सफाई नहीं दी की आखिर नीति आयोग से परामर्श के दौरान अनाज खरीद के जिस विकेंद्रीकृत मॉडल को राज्यों ने प्राथमिकता दी थी उस मॉडल को ही केंद्र सरकार ने पीएम आशा योजना में कोई जगह क्यों नहीं दी। इसकी जगह पर सरकार ने सबसे कम चर्चित PDPS मॉडल पर अपनी हामी भर दी हालांकि PDPS मॉडल को त्रुटिपूर्ण बताकर इसका राज्यों की तरफ से पुरजोर विरोध किया गया था।

जहां एक ओर सरकार के द्वारा अनाज की खरीद करने की योजना कांग्रेस के समय से ही अपने बिल्कुल अलग बजट के साथ अस्तित्व में थी वही प्राइवेट क्षेत्र के द्वारा अनाज को थोक पर खरीदने की योजना को प्रायोगिक तौर पर पूरे भारत के मात्र आठ जिलों में चलाने की योजना बनाई गयी। परिणामस्वरूप पीएम आशा योजना के तीन घटकों में से अनाज की खरीद के लिये मध्य प्रदेश का भ्रष्टाचार से भरा PDPS मॉडल मात्र अकेला ऐसा नया मॉडल था जिसे सरकार ने पहली बार पूरे देश में लागू किया था। 

अप्रैल 2018 में मंत्रालयों के आपसी परामर्श के दौरान दो मंत्रालयों और प्रधानमंत्री के ऑफिस की तरफ से कृषि मंत्रालय से पूछा गया की क्या उसने मध्य प्रदेश की स्कीम का मूल्यांकन कर लिया है। अपने जवाब में कृषि मंत्रालय ने कहा की इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक ग्रोथ की तरफ से मध्य प्रदेश की स्कीम का मूल्यांकन चल रहा है और कृषि मंत्रालय अगस्त 2018 तक पीएम आशा स्कीम के लांच होने के हफ्तों पहले मध्य प्रदेश की योजना का मूल्यांकन कार्ड जमा कर देगा। 

नीति आयोग जिसने इस स्कीम के ऊपर प्रारंभिक तौर पर नरम रुख अख्तियार कर रखा था उसने अब मध्य प्रदेश के इस मॉडल के खिलाफ चेतावनी देना शुरू कर दिया।

नीति आयोग ने सरकार से कहा की इस स्कीम को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने से पहले ''जरूरी तैयारी'' की जाने की जरूरत है। नीति आयोग के अनुसार "इस स्कीम में जरूरी तैयारियों के बिना व्यापारियों और किसानों की आपसी सांठगांठ की वजह से उभरे बहुत से जोखिम शामिल हो सकते है। और यह स्कीम कृषि उत्पादों के दामों को कम करने की संभावना से भी ग्रस्त है''।

नीति आयोग के इस कथन के बावजूद केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने इस स्कीम से जुड़ी इन सभी संभावित समस्याओं से निपटने के जिम्मेदारी राज्यों के ऊपर डाल दी। 

कृषि मंत्रालय ने अपनी एक प्रतिक्रिया में कहा की ''राज्यों को अपनी बाजारों को दुरुस्त करना होगा और अपने राज्य के स्तर पर ही निगरानी के लिये व्यवस्थित तंत्र विकसित करना होगा वही केंद्र की तरफ से राज्यों को इस काम के लिये सहारा प्रदान कर दिया जायेगा''। कृषि मंत्रालय राज्यों से ये उम्मीद लगाकर बैठा था की जिन राज्यों ने शुरू से ही जिस स्कीम को लेकर कोई रुचि नहीं दिखाई है वो राज्य इस स्कीम को ना सिर्फ लागू करें बल्कि इसकी खामियों को भी खुद ही ठीक करे।

वित्त मंत्रालय इस बात को जानना चाहता था की उन बटाईदारों का क्या होगा जो खेत की जुताई तो करते हैं लेकिन उसके मालिक नहीं होते और खेती करने की अधिकांश लागत को स्वयं उनको ही वहन करना पड़ता है। बताते चले की भारत में किसानों का एक बड़ा हिस्सा बटाईदारों, किराये पर खेती करने वाले किसानों या फिर खेत में मजदूरी करने वाले किसानों का है।

PDPS के अंतर्गत सरकार की तरफ से किसी भी प्रकार का फायदा उठाने के लिए किसानों को अपनी भूमि और उसके स्वामित्व के ब्योरे एवं अन्य ब्योरों के साथ पंजीकरण कराना था। इसके बाद खेत में उपज की औसत मात्रा के आधार पर सरकार इस बात का हिसाब लगाती की प्रत्येक किसान अपने खेत में कितना अनाज उपजा सकता है।

कृषि मंत्रालय ने अपनी प्रतिक्रिया में माना की PDPS स्कीम के लाभार्थियों में किराये पर खेत लेकर खेती करने वाले और बटाई पर खेती करने वाले किसान शामिल नहीं हैं। कृषि मंत्रालय ने अपनी प्रतिक्रिया में कठोरता पूर्वक कहा कि ''प्रस्तावित स्कीम किराये/ पट्टे पर खेत लेकर की जाने वाली खेती की समस्याओं के लिए कोई समाधान प्रस्तावित नहीं करती है''।

उपभोक्ता मामलों का विभाग इस बात को लेकर चिंतित था की अगर गरीब किसानों की जेब में अधिक पैसे डाले गये तो इससे अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और विभिन्न सेवाओं की कीमतें अचानक से बढ़ सकती है।

उपभोक्ता मामलों के विभाग ने कहा की ''किसी भी प्रकार के प्रस्तावित हस्तक्षेप के मुद्रास्फीति पर पड़ने वाले प्रभावों को कम करने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए और प्रस्तावित हस्तक्षेप के साथ लिये गये इन सभी समानांतर कदमों को एक साथ संबोधित किया जाना चाहिए''।

केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने कहा की ''न्यूनतम समर्थन मूल्य के बढ़ने से खाद्य मुद्रास्फीति पर असर पड़ेगा'' लेकिन कृषि मंत्रालय इसके लिए कुछ नहीं कर सकता है क्योंकि PDPS योजना का उद्देश्य इतना भर है की ''किसानों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य सुनिश्चित किया जाये''। कृषि मंत्रालय ने आगे कहा की ''(PDPS योजना के लागू होने के बाद भी) मुद्रास्फीति से जुड़ी चुनौतियां बनी रहेगी''।

उपभोक्ता मामलों के विभाग ने इस विषय पर चिंता व्यक्त की कि प्रस्तावित योजना से पूरी अर्थव्यवस्था की मुद्रास्फीति पर असर पड़ सकता है जिसके उत्तर में कृषि मंत्रालय ने ये माना की प्रस्तावित योजना के लागू होने के बाद महंगाई के बढ़ने से जुड़ी चुनौतियां बरकरार रहेगीं।

स्कीम को लेकर एक विभाग से लेकर दूसरा विभाग कृषि मंत्रालय को सुझाव पर सुझाव भेजता रहा लेकिन इन सभी सुझावों के बावजूद सरकार PDPS योजना को लेकर नहीं रूकी और ना ही सरकार ने PDPS योजना को फिर से प्रारूपित करने के लिए कोई मशक्कत की।

एक शोध पत्र ने भी ये समझाने की कोशिश की आखिर असल जीवन में ये योजना किस प्रकार से असर डालेगी।

योजना के लांच होने के चार महीने पहले अप्रैल 2018 में इंडियन कौंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशन्स ने एक शोध पत्र प्रकाशित किया था जिसमें इस बात पर प्रकाश डाला गया था की मध्य प्रदेश की स्कीम को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने का क्या प्रभाव हो सकता है।

इस शोध पत्र में दो संभावित बातों को लेकर भविष्यवाणी की गयी थी. पहली भविष्यवाणी में कहा गया था की अगर केंद्र सरकार मध्य प्रदेश की योजना का राष्ट्रीय स्तर पर प्रसार करती है और सभी फसलों के लिये किसानों को हुए नुकसान की एवज में मुआवजा देती है तो इसकी लागत "बहुत ज्यादा'' होगी।

इसी शोध पत्र की दूसरी भविष्यवाणी में कहा गया था की शायद "स्कीम को आधे अधूरे तरीके से लागू कर दिया जायेगा''. शोध पत्र आगे कहता है की ''योजना को आधे अधूरे तरीके से लागू करने पर योजना पर ज्यादा लागत तो नहीं आयेगी लेकिन कागजों पर कहा जा सकेगा की योजना लागू तो कर दी गयी है लेकिन इससे जमीनी हालात नहीं बदलेगे''।

और आखिरी में हुआ ये की इस शोध पत्र की दूसरी भविष्यवाणी सही साबित हुयी।

असफल होने के लिये बनाई गयी योजना

मोदी सरकार को मध्य प्रदेश की स्कीम की कमियों के बारे में पर्याप्त जानकारी थी और सरकार विशेषज्ञों द्वारा इस मृत स्कीम की पड़ताल के बाद इस स्कीम की उजागर हुई समस्याओं से भी वाफिक थी। इसके बावजूद मध्य प्रदेश की स्कीम को मोदी सरकार राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने की दिशा में चल निकली।

पीएम आशा स्कीम को लागू करने के करीब एक महीना पहले कृषि मंत्रालय में मध्य प्रदेश में बंटाधार हुयी PDPS योजना का मसला आने पर सरकार ने इसका मूल्यांकन कराना शुरू किया था।

और इस मूल्यांकन में PDPS को लेकर पहले से दी गयी सभी चेतावनियां फिर से पुख्ता हुयी थी।

इस मूल्यांकन ने इस बात को रेखांकित किया था की ''ये (PDPS) योजना बाजार व्यवस्था से जुड़े सभी लोगों, किसानों व्यापारियों और यहाँ तक की सरकार, को लाभ पहुंचाने की मंशा रखती थी''। हालांकि शोधकर्ताओं के अनुसार ''सापेक्षिक रूप से (बाजार व्यवस्था से जुड़े) किस व्यक्ति को कितना फायदा होगा यह स्पष्ट नहीं था''। और ये तथ्यात्मक बात है की पूरी स्कीम के लागू होने के बाद कुछ लोगों के हाथ खाली ही रह गये।

मध्य प्रदेश की असफल स्कीम के सरकार द्वारा कराये गये मूल्यांकन के बाद इस बात पर  कोई अस्पष्टता नहीं रह गयी थी की स्कीम से जिनका एकतरफा नुकसान हुआ वो किसान थे।

इस मूल्यांकन में कहा गया की ''भावांतर भुगतान योजना (BBY) चीजों को सम्मिलित और निष्कासित करने की समस्या के साथ-साथ जटिल और लंबी प्रक्रिया, भुगतान में होने वाली देरी, गुणवत्ता नियंत्रण का अभाव और मुख्य रूप से व्यापारियों के द्वारा (बाजार) मूल्यों को ऊपर-नीचे करने की संभावना जैसी मुख्य समस्याओं से ग्रस्त है''।

सरकार के द्वारा कराये गये IEG अध्ययन से ये स्पष्ट हो गया था की मध्य प्रदेश की स्कीम समस्याओं से भरी हुयी है और अगर किसी भी नजरिये से इस स्कीम का विस्तार किया जाना है तो पहले इसकी खामियों को दूर किया जाना चाहिए'।

हालांकि सरकारें सामान्य तौर पर स्वतंत्र आवाजों को नजरअंदाज करती है लेकिन उपरोक्त लिखित मध्य प्रदेश की स्कीम का मूल्यांकन सरकार ने स्वयं कराया था जिसमें सरकार को PDPS योजना के खिलाफ चेताया गया था। बाहरी आलोचकों के साथ असहिष्णुता बरतनी वाली सरकार को अपने खुद के द्वारा कराये गये मध्य प्रदेश की स्कीम के मूल्यांकन पर ध्यान देना चाहिए था लेकिन इस मूल्यांकन को सरकार ने पूरी तरीके से नजरअंदाज कर दिया। और सरकार ने जल्द ही पूरी तरह से मध्य प्रदेश की भ्रष्टाचार से भरी योजना पर आधारित पीएम आशा योजना को लागू कर दिया।

द कलेक्टिव ने पीएम आशा योजना के दिशानिर्देशों की समीक्षा में पाया की ये दिशा निर्देश मध्यप्रदेश की भावांतर योजना के दिशानिर्देशों के समान है। केंद्र सरकार ने मुआवजे को 25% तक सीमित करने के साथ-साथ योजना के लाभों को सिर्फ सरकार द्वारा निर्धारित मंडियों (APMC) में अपनी फसल को बेचने वाले किसानों तक सीमित कर दिया जिससे स्कीम के लाभों की पहुँच कम हो गयी।

भूतपूर्व कृषि सचिव और ICRIER में मध्य प्रदेश की PDPS योजना पर प्रकाशित शोध पत्र के सहलेखक, सिराज हुसैन ने कहा की "पूरे भारत में कृषि उपज की एक बहुत छोटी सी मात्रा को ही APMC में बेचा जाता है इसलिये अधिकतर मामलों में PDPS योजना क्रियान्वित नहीं हो सकती है''।

सरकार के खुद के डेटा के अनुसार देश की लगभग 60% कृषि उपज को सरकार द्वारा संचालित या APMC मंडियों से बाहर बेचा जाता है। अर्थात कोई स्पष्ट हिसाब-किताब करने के लिये देश में अधिकांश किसानों के द्वारा बेचे गये कृषि उत्पादों की बिक्री के ब्योरे को औपचारिक तौर पर कहीं दर्ज ही नहीं किया जाता है।

अक्षमता ने किया बचाव

विडम्बना ये है की इस योजना और योजना से होने वाले भ्रष्टाचार से देश को केंद्र सरकार की वित्तीय अक्षमताओं ने बचाया। कई सालों तक सरकार के पास इस योजना में लगाने के लिए कोई पैसा ही नहीं था।

जैसा की द कलेक्टिव ने पहले भी रिपोर्ट किया था की पीएम आशा योजना के लांच होने के बाद इसके ऊपर होने वाला खर्चा लगातार कम होता चला गया जो 2024 के लोकसभा चुनावों के ठीक पहले बढ़ने से पूर्व लगातार दो वित्तीय वर्षों तक शून्य था।

पीएम आशा योजना के फंड में की गयी कटौती को छुपाने के लिये सरकार ने फंड की गणना करने की एक नयी तरकीब खोज निकाली। सरकार ने यूपीए के समय की दशकों पुरानी सरकार के द्वारा की जाने वाली अनाज की सीधी खरीद योजना में हुए खर्चे को पीएम आशा के खर्चे में समाहित कर दिया। इससे हुआ ये की जो हजारों करोड़ रुपये अनाज की सीधी खरीद वाली योजना पर खर्च किये गये थे उसे पीएम आशा योजना की सफलता के रूप में दिखा दिया गया हालांकि सच्चाई ये है कि पीएम आशा योजना के PDPS वाले भाग पर कोई खर्चा किया ही नहीं गया था।

जब कृषि विषय पर संसद की स्थायी समिति ने पीएम आशा योजना के ढीले क्रियान्वयन पर केंद्र सरकार की तरफ सवाल दागे तो योजना की असफलता के लिये केंद्र सरकार ने ''राज्यों की तरफ से मांग में कमी'' को दोषी ठहरा दिया। लेकिन समिति ने सरकार की खिंचाई करते हुए तुरंत कहा की तथ्य ये है की योजना प्रारंभिक तौर पर शुरू ही नहीं हो पाई थी जो की योजना के खराब डिजाइन को इंगित करता है।

इस बार तो लोगों का पैसा चोरी होने से बच गया क्योंकि राज्य सरकारों (बीजेपी शासित सरकारों सहित) ने केंद्र सरकार द्वारा आगे बढ़ाए गए इस घटिया नीति के विकल्प को नजरअंदाज कर दिया था।