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संसद की अवहेलना
पुलिसकर्मियों की आत्महत्या रोकने के लिए संसद में गृहमंत्री के आश्वासन से कैसे पलटी सरकार
सत्तासीन नेता संसद में बैठ कर जनता को कई आश्वासन देते हैं। इस श्रृंखला में द कलेक्टिव इस बात की जांच कर रहा है कि उन आश्वासनों का क्या हुआ, क्योंकि हमने अपने पाठकों से वादा किया है कि हम शक्तिशाली लोगों की जवाबदेही तय करेंगे।
नई दिल्ली: तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने 2016 में लोकसभा में स्वीकार किया था कि पुलिस कर्मियों के बीच आत्महत्या के बढ़ते मामले चिंताजनक हैं। लोकसभा में एक चर्चा में यह बात सामने आई थी कि पुलिस के लिए आवास की कमी मानसिक तनाव और आत्महत्या का एक बड़ा कारण है। सिंह ने इस पर गौर करने का वादा किया था।
उन्होंने कहा, "जहां तक पुलिसकर्मियों का सवाल है, यह सच है कि हाउसिंग का स्तर संतोषजनक नहीं है। मुझे लगता है कि हाउसिंग के स्तर में सुधार की जरूरत है और केंद्र सरकार इस मुद्दे पर बहुत गंभीरता से विचार कर रही है।"
लेकिन क्या उन्होंने संसद को दिया अपना आश्वासन पूरा किया?
वैसे तो भारत की जनता नेताओं के ऐसे बड़े-बड़े वादों की आदी हो चुकी है जिनको पूरा करना संभव नहीं लगता, लेकिन संसद में दिए गए आश्वासनों का एक आदर और महत्व होता है, जिसे सरकारी जवाबदेही सुनिश्चित करने की प्रणाली द्वारा बरकरार रखा जाता है। “पार्लियामेंट डिफाइड” यानि “संसद की अवहेलना” हमारी खोजी श्रृंखला है जिसमें हम इन संसदीय वादों पर प्रकाश डालते हैं और उनके परिणामों का पता लगाते हैं।
पिछले पांच सालों में 55 मंत्रालयों को कवर करने वाली हजारों पन्नों की 100 से अधिक संसदीय रिपोर्टों के विस्तृत विश्लेषण के बाद, हमारे संवाददाताओं ने सरकारी आश्वासनों की असलियत को उजागर किया है।
हमने अपनी जांच में पाया कि पुलिसकर्मियों की आत्महत्या को रोकने के लिए तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने जो वादा किया था, केंद्रीय गृह मंत्रालय उससे चुपचाप पीछे हट गया, जबकि यह राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा एक संवेदनशील मुद्दा है। सालों तक नरेंद्र मोदी सरकार पुलिस आवास की खराब स्थिति के लिए राज्य सरकारों को दोष देती रही, जबकि उसने पुलिस आवास के लिए केंद्रीय फंडिंग रोक दी।
हालांकि संसद के पास दोनों सदनों में किए गए वादों के लिए सरकार को जवाबदेह ठहराने की एक विस्तृत प्रक्रिया है, लेकिन हमारी खोजी श्रृंखला से पता चलता है कि यह व्यवस्था बुरी तरह विफल रही।
वादे से मुकरने के बावजूद, केंद्रीय गृह मंत्रालय न केवल संसदीय समीक्षा से सफलतापूर्वक बच गया, बल्कि उसने एक महत्वपूर्ण समिति की उन सिफारिशों को भी खारिज कर दिया जो पुलिसकर्मियों को बेहतर आवास प्रदान करने में राज्यों की मदद करने के लिए दी गईं थीं।
समस्या पर चर्चा
राजनाथ सिंह ने यह आश्वासन पुलिस बलों के बीच आत्महत्याओं पर लोकसभा में आवेशपूर्ण चर्चा के बीच दिया था। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की सुप्रिया सुले और अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के वेंकटेश बाबू टीजी ने केंद्रीय गृह मंत्रालय से ऐसी आत्महत्या के मामलों की संख्या के बारे में पूछा और जाना चाहा कि क्या सरकार ने इस बात पर गौर किया है कि किस कारण से पुलिसकर्मियों को अपनी जान देनी पड़ी।
सरकार द्वारा दिए गए आंकड़ों से पता चला है कि 2012 से 2015 के बीच देश भर में 614 पुलिसकर्मियों ने आत्महत्या की। आत्महत्या के कारणों पर केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कहा कि पुलिस राज्य का विषय है और इसलिए यह राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है वह इसका पता लगाए।
लेकिन केंद्र सरकार के अंतर्गत आने वाले सशस्त्र पुलिस बलों के आंकड़े देखें तो पता चलता है कि 2013 से 2016 के बीच केंद्रीय यूनिटों के 365 कर्मियों ने भी आत्महत्या की। सशस्त्र पुलिस बलों में सीमा सुरक्षा बल, केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल, असम राइफल्स और दिल्ली पुलिस आदि शामिल हैं। डेटा से पता चलता है कि केंद्रीय पुलिस कर्मियों के लिए भी आवास की सुविधा बेहतर नहीं थी।
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कहा कि उसने इस मुद्दे से निपटने के तरीकों पर राज्य सरकारों के लिए एडवाइजरी जारी की है, जिसमें काम के घंटे सीमित करने से लेकर पुलिसकर्मियों को तनावमुक्त करने के लिए योग और मेडिटेशन केंद्र स्थापित करने जैसे सुझाव दिए गए हैं। इस जवाब से यह संकेत गया कि सरकार की मंशा ठोस समाधान प्रदान करने की बजाय टाल-मटोल कर जिम्मेदारी से बचने की है और इससे लोकसभा में तीखी बहस शुरू हो गई।
सदन के अध्यक्ष ने भाजपा सांसद और मुंबई के पूर्व पुलिस आयुक्त सत्यपाल सिंह से चर्चा में भाग लेने के लिए कहा, यह देखते हुए कि एक पुलिसकर्मी के रूप में उनका अनुभव मूल्यवान होगा।
सत्यपाल सिंह ने बताया कि उनके अनुसार पुलिस में आत्महत्याओं का सबसे बड़ा कारण था रहने और काम करने की खराब स्थिति। उन्होंने कहा कि पुलिस मैनुअल के अनुसार प्रत्येक पुलिसकर्मी को आवास उपलब्ध कराना होता है। हालांकि, राज्यों में आवास का स्तर लगभग 30% से 50%, और कुछ में तो 10% से भी कम है। जिसका मतलब है कि पूरे भारत में अधिकांश पुलिसकर्मी सरकारी आवास से वंचित हैं, वह भी ऐसी नौकरी में जहां उन्हें प्रतिदिन 14 घंटे तक काम करना पड़ता है, उन्होंने बताया।
सत्यपाल सिंह ने केंद्र सरकार से पूछा कि क्या वह सुनिश्चित कर सकती है कि राज्य 100% पुलिसकर्मियों को आवास प्रदान करें। इसके साथ ही उन्होंने चर्चा की दिशा और सार को स्पष्ट कर दिया।
सरकार का जवाब
जवाब में राजनाथ ने संसद में कहा,
“जहां तक पुलिसकर्मियों का सवाल है, यह सच है कि आवास का स्तर संतोषजनक नहीं है। मुझे लगता है कि आवास के स्तर में सुधार की जरूरत है और केंद्र सरकार इस मुद्दे पर बहुत गंभीरता से विचार कर रही है।”
इसके बाद कांग्रेस सांसद मल्लिकार्जुन खड़गे और राजनाथ के बीच तीखी नोकझोंक हो गई। खड़गे ने कहा कि राज्य सरकारों को पहले पुलिसकर्मियों के लिए आवास उपलब्ध कराने के लिए केंद्र सरकार की पुलिस आधुनिकीकरण योजना के तहत फंड दिया जाता था, जिसे केंद्र सरकार ने अब बंद कर दिया है।
राजनाथ का उत्तर था कि केंद्र सरकार आवास के लिए राज्यों को फंड आवंटित नहीं करती है। हालांकि, उनके एक कैबिनेट सहयोगी ने तुरंत ही उनकी बात का फैक्ट-चेक कर दिया। तत्कालीन सांसद और उसके पहले आईएएस अधिकारी रह चुके राज कुमार सिंह ने रिकॉर्ड पर कहा कि केंद्र सरकार पहले राज्यों को पुलिस आवास के लिए फंड देती थी लेकिन इसे बंद कर दिया गया।
"मैं बस एक बात स्पष्ट करना चाहता हूं। पुलिस आधुनिकीकरण योजना का एक भाग आवास भी था। केंद्र सरकार और राज्य दोनों इसके लिए धन मुहैया कराते थे। शायद केंद्र सरकार ने इसे रोक दिया है क्योंकि इससे केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी बढ़ गई है," उन्होंने कहा।
उन्होंने विपक्ष के सांसदों के विचारों का समर्थन करते हुए कहा, "मैं गृहमंत्री से इस योजना को फिर से शुरू करने की अपील करूंगा।"
सरकारी रिकॉर्ड भी आर के सिंह के कथन की पुष्टि करते हैं। वित्तीय वर्ष 2015-16 में गृह मंत्रालय ने पुलिस बलों हेतु आवास और अन्य निर्माण परियोजनाओं के लिए राज्य सरकारों को पैसा देना बंद कर दिया। दो साल बाद, उग्रवाद से प्रभावित राज्यों की फंडिंग फिर से शुरू की गई। लेकिन इन राज्यों में भी पुलिस आधुनिकीकरण योजना पर खर्च होने वाला पैसा हर साल कम होता गया।
हालांकि, राजनाथ सिंह के "मुद्दे पर बहुत गंभीरता से विचार करने" के आश्वासन का मतलब था कि केंद्र सरकार अब देश भर में केंद्र और राज्य पुलिस बल दोनों के लिए आवास की समस्या को सक्रिय रूप से संबोधित करेगी।
जब सरकारी आश्वासनों पर संसदीय समिति ने सरकार से मामले पर प्रगति के बारे में जानकारी मांगी तो गृह मंत्रालय अपनी बात से पलट गया। यह समिति एक वाचडॉग है जो सदनों में किए गए वादों पर जवाबदेही तय करती है।
लोकसभा में राजनाथ के आश्वासन के तीन महीने से भी कम समय में, 26 जुलाई 2016 को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने समिति से आश्वासन की समीक्षा ही छोड़ने के लिए कहा। मंत्रालय ने कहा कि चूंकि संविधान के अनुसार पुलिस राज्य का विषय है, इसलिए आवास की कमी पर राज्य सरकारों को ध्यान देना चाहिए।
मंत्री अक्सर जनता के बीच बड़े-बड़े वादे करते हैं, लेकिन जब उन्हें उनके वादों की राजकोषीय लागत के बारे में अवगत कराया जाता है तो वे पलट जाते हैं।
इस यू-टर्न को सही ठहराने के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पहले कहा कि पहले तो राजनाथ का बयान कोई आश्वासन था ही नहीं। जबकि उन्होंने एक ऐसी अभिव्यक्ति का उपयोग किया था जो संसदीय कार्य मंत्रालय द्वारा आश्वासन के रूप में मान्यता प्राप्त है।
बाद में गृह मंत्रालय ने सच्चाई उजागर की। उसने कहा कि "इस (आश्वासन) को पूरा करना संभव नहीं है"।
चार साल बीत गए, केंद्र सरकार ने अपने आश्वासन पर कोई कार्रवाई नहीं की।
मार्च 2020 की रिपोर्ट में आश्वासन समिति ने फिर इस पर सवाल किया। समिति ने गृह मंत्रालय के तर्क को "अस्वीकार्य" बताते हुए खारिज कर दिया।
समिति ने कहा कि "मंत्रालय की दलील कि (राजनाथ सिंह का) जवाब आश्वासन नहीं है, समिति को अस्वीकार्य है। इसके अलावा, मंत्रालय यह कहकर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकता कि पुलिस राज्य का विषय है"।
समिति ने गृह मंत्रालय को निर्देश दिया कि वह वित्त मंत्रालय के साथ मिलकर सुनिश्चित करे कि पुलिस आवास के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध कराया जाए। समिति ने मार्च 2020 की अपनी रिपोर्ट में गृह मंत्रालय से इस मुद्दे को "बहुत गंभीरता से" लेने को कहा।
लेकिन गृह मंत्रालय पर कोई असर नहीं हुआ।
20 अगस्त 2020 को मंत्रालय ने एक बार फिर मांग की कि आश्वासन को छोड़ दिया जाए। मंत्रालय ने फिर यही दलील दी कि पुलिस राज्य का विषय है, इसलिए केंद्रीय गृह मंत्रालय के पास इस आश्वासन को लागू करने का अधिकार नहीं है।
मंत्रालय ने अपनी बात को मजबूती देने के लिए कहा कि राज्यों के पास अब अधिक पैसा है क्योंकि 2015 में 14वें वित्त आयोग द्वारा केंद्रीय करों में उनकी हिस्सेदारी 32% से बढ़ाकर 42% कर दी थी। लेकिन जब गृहमंत्री ने पहली बार 2016 में संसद से पुलिस आवास की समस्या पर 'गंभीरता से' विचार करने का वादा किया था, तब भी सरकार को इस वृद्धि के बारे में अच्छी तरह से पता था।
लेकिन इस बार गृह मंत्रालय अपनी बात मनवाने में सफल रहा। राजनाथ के वादे के चार साल बाद, अगस्त 2020 में संसदीय समिति ने आश्वासन को समीक्षा सूची से निकाल दिया।
लेकिन पुलिस आवास, जिसे पुलिसकर्मियों में तनाव के प्रमुख कारणों में से एक माना गया था, उसमें कोई बेहतरी नहीं हुई।
2022 में गृह मामलों की स्थाई समिति ने देश भर में पुलिस आवास की खराब स्थिति पर सरकार की खिंचाई की। आंकड़े बताते हैं कि राज्यों में पुलिसकर्मियों के लिए कागज पर जितने आवास स्वीकृत हैं, वास्तव में उसके 50% से भी कम उपलब्ध हैं। समिति ने केंद्र सरकार से पुलिसकर्मियों को आवास उपलब्ध कराने के लिए राज्यों को वित्तीय सहायता देने को कहा।
केंद्र सरकार ने जवाब दिया कि ऐसी सहायता पहले सभी राज्यों को दी जाती थी। लेकिन यह अब केवल उग्रवाद और नक्सलवाद से प्रभावित राज्यों के लिए उपलब्ध है।
समिति को केंद्रीय गृह मंत्रालय के जवाब से निराशा हुई और उसने एक बार फिर यह सुनिश्चित करने के लिए कहा कि सभी राज्य सरकारों को कुछ पैसा आवंटित किया जाए।
फरवरी 2022 में गृह मंत्रालय ने जवाब दिया और फिर वही तर्क दोहराया, कि पुलिस आवास राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है। हालांकि, मंत्रालय ने यह भी स्वीकार किया कि राज्य पुलिस को सुविधाएं मुहैया कराने में वित्तीय रूप से सक्षम नहीं हैं। यह मंत्रालय के पिछले दावे के विपरीत था जो उसने आश्वासन समिति के समक्ष किया था, कि टैक्स में बढ़ी हुई हिस्सेदारी के कारण राज्य वित्तीय रूप से मजबूत हैं। इस दावे का उपयोग पुलिस आवास के लिए फंडिंग के अनुरोधों को अस्वीकार करने के लिए किया गया था।
राज्य पुलिस बलों की तरह ही केंद्रीय पुलिस बलों के आवास की स्थिति भी गंभीर बनी हुई है। गृह मामलों की स्थायी समिति की मार्च 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय पुलिस बलों के लिए उपलब्ध आवास कागज पर केंद्र सरकार द्वारा स्वीकृत इकाइयों के आधे से भी कम (47.95%) हैं।
यह केंद्रीय पुलिस बलों में आत्महत्या के बढ़ते मामलों का एक कारण हो सकता है, जैसी चेतावनी भाजपा और विपक्ष दोनों के सांसदों ने दी थी। 2018 से 2022 के बीच, 654 केंद्रीय सशस्त्र पुलिसकर्मियों ने आत्महत्या की। राज्य पुलिसकर्मियों द्वारा आत्महत्या का हालिया डेटा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है -- केंद्र सरकार ऐसे डेटा को सक्रिय रूप से प्रकाशित नहीं करती है।
सार्वजनिक रूप से भाजपा सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा पर अपनी साख के बारे में बड़ी-बड़ी बातें करना पसंद करती है। लेकिन जब इसपर खरा उतरने की बात आती है तो वह पीछे हट जाती है।
यह वादे भी नहीं हुए पूरे
1949 में मणिपुर राज्य ने भारतीय संघ में विलय के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। तब से, मणिपुर में यह दावा किया जाता रहा है कि इसपर जबरदस्ती हस्ताक्षर कराए गए थे और इस समझौते को खारिज किया जाता रहा है, जिसके कारण इस सीमावर्ती राज्य में एक भावनात्मक बहस छिड़ गई है।
संसद में केंद्रीय गृहमंत्री से पूछा गया कि क्या विलय का ऐसा कोई समझौता मौजूद है, यदि हां, तो क्या इस समझौते को मणिपुर राज्य विधानसभा ने खारिज कर दिया था और क्या संसद ने इसे मंजूरी दे दी थी।
18 दिसंबर, 2018 को गृहमंत्री ने सदन को आश्वासन दिया कि इस समझौते के संबंध में जानकारी "एकत्रित की जा रही है"।
बाद में, 28 जुलाई, 2020 को आश्वासन समिति के समक्ष एक सुनवाई के दौरान केंद्रीय गृह मंत्रालय ने आश्चर्यजनक रूप से स्वीकार किया कि उसे इस बात की कोई जानकारी नहीं मिली कि देश ने मणिपुर के विलय समझौते को आधिकारिक स्वीकृति दी थी।
27 महीने बाद समिति ने इसे आश्वासनों की सूची से हटा दिया।
2013 में देश भर में सरकारी और निजी एजेंसियों द्वारा अवैध फोन टैपिंग के विभिन्न आरोप लगाए गए, जिससे पूरे देश में हड़कंप मच गया। गुजरात में यह आरोप लगाया गया कि पुलिस ने राज्य के तत्कालीन गृहमंत्री अमित शाह के आदेश पर टैपिंग ऑपरेशन चलाया था। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की जासूसी के आरोप लगे। दिल्ली में राज्यसभा में तत्कालीन विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने आरोप लगाया कि उन पर अवैध रूप से निगरानी रखी गई थी।
फरवरी 2014 में यूपीए सरकार ने आश्वासन दिया कि वह आरोपों की जांच के लिए एक आयोग का गठन करेगी। तीन महीने बाद यूपीए सरकार सत्ता से बाहर हो गई और भाजपा ने सरकार बनाई।
हालांकि, यह आश्वासन लंबित रहा।
जिन पर कभी गुजरात में फोन टैपिंग का आरोप था, वही अमित शाह जून 2020 तक केंद्रीय गृह मंत्री बन गए थे।
अमित शाह के अधीन गृह मंत्रालय ने आश्वासन समिति को बताया कि कैबिनेट ने अवैध फोन टैपिंग की घटनाओं की जांच के लिए आयोग का गठन नहीं किया है। इन घटनाओं में वह मामला भी था जिसमें कभी शाह को आरोपी बनाया गया था। मंत्रालय ने कहा कि भारत के तत्कालीन सॉलिसिटर जनरल ने पहले ही सुप्रीम कोर्ट को सूचित कर दिया था कि जांच आयोग नियुक्त करने का कोई प्रस्ताव नहीं है।
84 महीने बाद समिति ने आश्वासन हटा दिया।
Read Part 1 of the Parliament Defied series.
आश्वासनों का डाटाबेस
◍ ड्रॉप किया गया
आश्वासन दिया गया : 03.03.2020
समिति ने इसे हटाया : 03.03.2021
House : लोकसभा
कुल लंबित अवधि : 12 महीने
◍ ड्रॉप किया गया
आश्वासन दिया गया :01.03.2016
समिति ने हटाया : 17.03.2021
सदन :लोकसभा
कुल लंबित अवधि : 60 महीने
◍ ड्रॉप किया गया
आश्वासन कब दिया गया :01.01.2019
समिति ने कब हटाया : 09.03.2021
सदन : लोकसभा
कुल लंबित अवधि : 26 महीने
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