DEfence Ministry
संसद की अवहेलना
रक्षा लैब में बना मंदिर का रथ; मोदी सरकार ने मामले को दबाया
सत्तासीन नेता संसद में बैठ कर जनता को कई आश्वासन देते हैं। इस श्रृंखला में द कलेक्टिव इस बात की जांच कर रहा है कि उन आश्वासनों का क्या हुआ, क्योंकि हमने अपने पाठकों से वादा किया है कि हम शक्तिशाली लोगों की जवाबदेही तय करेंगे।
नई दिल्ली: देश के प्रमुख सैन्य प्रौद्योगिकी और अनुसंधान संगठन डीआरडीओ ने 2014 में एक मंदिर के लिए एक कार्बन-फाइबर रथ का निर्माण किया, जिसके लिए उसे आलोचना का सामना करना पड़ा।
डीआरडीओ की पुणे प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने कथित तौर पर जनता के पैसे से एक "हाई-टेक" बैटरी चालित रथ बनाने में 2012 से एक साल का समय लगाया।
एक रथ के सहारे ही राजनैतिक हाशिए से सत्ता तक का सफर करने वाली नवनिर्वाचित भाजपा सरकार से मई 2015 में टीडीपी सांसद चामकुरा मल्ला रेड्डी ने पूछा कि क्या डीआरडीओ ने वास्तव में ऐसा रथ बनाकर उसे मंदिर को दान किया था।
उन्होंने रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर से पूछा कि इस परियोजना की लागत क्या थी, पैसा कहां से आया, क्या सरकार ने रथ को मंजूरी दी थी और यदि नहीं दी तो क्या कार्रवाई की जाएगी।
पर्रिकर ने लोकसभा में यह कहकर सवाल को टाल दिया कि मामले "की जांच चल रही है"। उन्होंने आधिकारिक तौर पर इसकी पुष्टि या खंडन नहीं किया कि क्या डीआरडीओ ने वास्तव में रथ बनाया था और क्या सरकार ने उसे मंदिर को डोनेशन के रूप में देने की मंजूरी दी थी।
उनके बयान को एक आधिकारिक आश्वासन माना गया, जिसका मतलब था कि रक्षामंत्री को तीन महीने के भीतर सदन को जांच का विवरण देना आवश्यक हो गया।
सरकार के आश्वासनों पर द कलेक्टिव की खोजी शृंखला के छठे भाग में हम देखेंगे कि पर्रिकर ने इस मामले की जानकारी छिपाई, जिसमें उच्च अधिकारियों के खिलाफ आरोप लगे थे। उन्हीं में से एक अब नीति आयोग के सदस्य हैं।
बाद में केंद्र सरकार ने देश के संसाधनों के दुरुपयोग से जुड़े घोटाले की जांच के आश्वासन को निष्प्रभावी कर दिया।
वैसे तो भारत की जनता नेताओं के ऐसे बड़े-बड़े वादों की आदी हो चुकी है जिनको पूरा करना संभव नहीं लगता, लेकिन संसद में दिए गए आश्वासनों का एक आदर और महत्व होता है, जिसे सरकारी जवाबदेही सुनिश्चित करने की प्रणाली द्वारा बरकरार रखा जाता है। "पार्लियामेंट डिफाइड" यानि "संसद की अवहेलना" हमारी खोजी श्रृंखला है जिसमें हम इन संसदीय वादों पर प्रकाश डालते हैं और उनके परिणामों का पता लगाते हैं।
पिछले पांच सालों में 55 मंत्रालयों को कवर करने वाली हजारों पन्नों की 100 से अधिक संसदीय रिपोर्टों के विस्तृत विश्लेषण के बाद, हमारे संवाददाताओं ने सरकारी आश्वासनों की असलियत को उजागर किया है।
रथ की गाथा
पुणे में अनुसंधान और विकास प्रतिष्ठान (इंजीनियर्स) प्रयोगशाला, जहां रथ का निर्माण हुआ, देश में डीआरडीओ की 60 प्रयोगशालाओं में से एक है।
यह सेना के कोर ऑफ इंजीनियर्स के लिए उपकरण डिजाइन करती है। इसने बारूदी सुरंगों को सुरक्षित रूप से साफ़ करने और परमाणु या रासायनिक हथियारों से दूषित युद्धक्षेत्रों में काम करने के लिए आवश्यक तकनीकें उपलब्ध कराई हैं।
लेकिन इस लैब में भी खामियां थीं और इसकी आलोचना होती थी कि इसे सेना का समर्थन प्राप्त नहीं है। 2012 में सरकारी लेखा परीक्षक कैग ने प्रयोगशाला के प्रदर्शन को लेकर उसकी आलोचना की थी। कैग ने पाया कि पिछले 15 सालों के दौरान शुरू की गईं लैब की 80% से अधिक परियोजनाएं विफल रही हैं, जिनकी कुल कीमत 85 करोड़ रुपए से अधिक थी।
जिस साल कैग की रिपोर्ट प्रकाशित हुई, उसी साल लैब ने नए निदेशक एस गुरुप्रसाद के नेतृत्व में पुणे के संत ज्ञानेश्वर मंदिर के लिए एक रथ बनाने की परियोजना शुरू की। इसके कुछ ही समय बाद, लैब के एक अन्य वैज्ञानिक डी मुथुराज ने केंद्रीय सतर्कता आयोग में शिकायत दर्ज कराई, जिसमें आरोप लगाया गया कि रथ बनाने के लिए डीआरडीओ के फंड का दुरुपयोग किया जा रहा है।
रक्षा मंत्रालय ने मंदिर का रथ बनाने के डीआरडीओ के फैसले की जांच के लिए चुपचाप एक फैक्ट-फाइंडिंग समिति का गठन किया। समिति ने 5 सितंबर 2014 को मंत्रालय को एक रिपोर्ट दी, जिसमें डीआरडीओ को किसी भी गलत काम का दोषी नहीं पाया गया।
फैक्ट-फाइंडिंग समिति की रिपोर्ट ने रक्षा प्रयोगशाला की रथ परियोजना को उचित ठहराया, इस दावे के साथ कि यह प्रयोगशाला के "भविष्य के कार्यों के लिए उपयोगी होगा"।
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने एक ट्रिब्यूनल से इस रिपोर्ट पर कुछ विवरण प्राप्त किए हैं, जिन्हें कभी सार्वजनिक नहीं किया गया था।
अविश्वसनीय रूप से समिति ने दावा किया कि रथ को "डीआरडीओ की कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर) के तहत उन्नत प्रौद्योगिकी को साकार करने के लिए" विकसित किया गया था।
समिति की रिपोर्ट ने कहा कि परियोजना वास्तव में डीआरडीओ के महानिदेशक और केंद्रीय रक्षा मंत्री के तत्कालीन वैज्ञानिक सलाहकार वीके सारस्वत के आदेश पर शुरू की गई थी।
रिकॉर्ड के अनुसार मंदिर ने सारस्वत से एक रथ के लिए "स्टीयरेबल इलेक्ट्रिक चेसिस" विकसित करने का अनुरोध किया था।
समिति ने इसे सही ठहराने के लिए कहा कि परियोजना की लागत कम थी और यह भविष्य में सुरक्षा बलों के लिए उच्च तकनीक विकसित करने में सहायक थी।समिति के अनुसार साल भर चलने वाली परियोजना, जिसमें सरकार के वैज्ञानिक शामिल थे, उसकी लागत टैक्सों के अलावा मात्र 17.60 लाख रुपए थी।
समिति द्वारा इस लीपापोती से व्यथित होकर, रिपोर्ट आने के एक दिन बाद 6 सितंबर 2014 को मुथुराज ने बॉम्बे उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। उन्होंने आरोप लगाया कि इसमें वास्तव में भ्रष्टाचार हुआ है और इसका खुलासा करने के कारण उन्हें सरकार प्रताड़ित कर रही है।
मंत्रालय ने उच्च न्यायालय के समक्ष उपरोक्त गुप्त फैक्ट-फाइंडिंग समिति की रिपोर्ट का इस्तेमाल करके दावा किया कि कहीं कोई गलती नहीं हुई है। मामला अभी चल ही रहा था कि एक साल बाद 2015 में एक सांसद ने डीआरडीओ की रथ परियोजना के बारे में पूछा। तत्कालीन रक्षा मंत्री पर्रिकर ने संसद को बताया कि उनका मंत्रालय इस मामले की जांच करेगा।
उनके मंत्रालय को आंतरिक फैक्ट-फाइंडिंग समिति, उसके निष्कर्षों, व्हिसलब्लोअर द्वारा प्रताड़ना के आरोपों और बॉम्बे हाई कोर्ट में चल रहे मामले के बारे में अच्छी तरह से पता था, लेकिन पर्रिकर ने इन तथ्यों को संसद से छुपाया।
हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि ऐसा संसद में प्रश्न उठने के कारण हुआ, लेकिन सितंबर 2016 आते-आते रक्षा मंत्रालय ने अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू कर दी थी -- डीआरडीओ के महानिदेशक और मंत्री के विशेष सलाहकार सारस्वत के खिलाफ नहीं, बल्कि सारस्वत के एक दूसरे जूनियर वैज्ञानिक -- लैब निदेशक एस गुरुप्रसाद -- के खिलाफ।
गुरुप्रसाद के खिलाफ आरोप यह नहीं था कि उन्होंने सरकारी संसाधनों का उपयोग करके गलत तरीके से रथ का निर्माण किया था, बल्कि उन्होंने अपने खातों में गड़बड़ी की थी -- उन्होंने इसे डीआरडीओ के सीएसआर अकाउंट के तहत दिखाया था। यानी, परियोजना को सही माना गया, सारस्वत द्वारा दी गई मंजूरी को सही माना गया।
राज़ से उठा पर्दा
2017 में गुरुप्रसाद सरकार के आरोपों और उनके कारण पदोन्नति न दिए जाने के खिलाफ केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण में चले गए।
यह ट्राइब्यूनल केंद्र सरकार की कर्मचारी भर्ती और सेवा शर्तों से संबंधित विवादों को सुलझाने के लिए न्यायिक निकाय है।
अपने हलफनामे में गुरुप्रसाद ने कहा कि रक्षा मंत्री के तत्कालीन वैज्ञानिक सलाहकार और डीआरडीओ के महानिदेशक वीके सारस्वत ने उन्हें जुलाई 2012 में रथ बनाने का निर्देश दिया था।
ट्राइब्यूनल में सुनवाई के रिकॉर्ड से पता चलता है कि रक्षा मंत्रालय ने अपना रुख बदला, और बॉम्बे हाई कोर्ट में पुणे लैब के जिस निदेशक का उसने बचाव किया था, अब उसे ही दंडित करने का फैसला किया, रथ बनाने के लिए नहीं, बल्कि जहां से उन्होंने परियोजना के लिए पैसा निकालने का दावा किया था, उसके लिए।
ट्राइब्यूनल की सुनवाई में, अपनी फैक्ट-फाइंडिंग समिति के निष्कर्षों और पहले उसने जो उच्च न्यायालय से कहा था, उसके विपरीत जाकर मंत्रालय ने कहा कि डीआरडीओ में पहले न तो कभी सीएसआर कार्य किया गया था और न ही इसका कोई प्रावधान था। मंत्रालय ने कहा कि गुरुप्रसाद ने सरकारी प्रक्रियाओं का उल्लंघन किया था और परियोजना के लिए संबंधित अधिकारियों से मंजूरी नहीं ली थी।
ट्राइब्यूनल ने अपने अंतिम फैसले में गुरुप्रसाद का पक्ष लिया। उसने पुष्टि की कि रथ का काम डीआरडीओ के महानिदेशक द्वारा सौंपा गया था। यह भी कहा गया कि गुरुप्रसाद पर परियोजना के लिए कार्रवाई नहीं की जा सकती क्योंकि यदि उन्होंने महानिदेशक के आदेशों की अवहेलना की होती तो यह अवज्ञा का मामला होता।
ट्राइब्यूनल ने कहा कि गुरुप्रसाद के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई केवल इसलिए की गई थी क्योंकि "संगठन में किसी अज्ञात और अदृश्य व्यक्ति" की उनके प्रति धारणा बदल गई थी।
गुरुप्रसाद को खराब अकाउंटिंग प्रैक्टिस के आरोप से बरी कर दिया गया।
केंद्र सरकार ने कहानी में आए उतार-चढ़ाव के बारे में संसद को लगातार अंधेरे में रखा। मामले की जांच का पहला वादा करने के पांच साल बाद, नवंबर 2020 में सरकार ने आश्वासन को हटाने के लिए कहा क्योंकि कोई भी दोषी नहीं पाया गया था।
सभी को क्लीन चिट मिल गई जबकि संसद और जनता को इस बात से अनभिज्ञ रखा गया कि डीआरडीओ ने टैक्स का पैसा लगाकर एक धार्मिक परियोजना क्यों शुरू की।
यह वादे भी नहीं हुए पूरे
विभिन्न सैन्य प्रशिक्षण संस्थानों के केंद्रीय संगठन के रूप में कार्य करने के लिए एक राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय की सिफारिश 1967 से बार-बार की गई है। 1999 में कारगिल युद्ध समीक्षा समिति ने भी यह सुझाव दिया था। इस समिति को ऐसे उपाय बताने का काम सौंपा गया था जिनसे "ऐसी सशस्त्र घुसपैठ से देश की सुरक्षा की जा सके"।
10 दिसंबर 2012 को, तत्कालीन कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने संसद को आश्वासन दिया कि उसने भारतीय राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है और हरियाणा के बिनोला में भूमि का अधिग्रहण कर लिया है।
लेकिन सात साल बाद, भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के तहत, केंद्रीय रक्षा मंत्रालय सरकारी आश्वासन समिति को केवल इतना बता सका कि विश्वविद्यालय की स्थापना में "कई साल" लगेंगे और सरकार ने यूनिवर्सिटी के लिए अलग एक्ट बनाने की नीति पर भी कोई फैसला नहीं लिया है। मंत्रालय ने आश्वासन समिति से कहा कि वह आश्वासन छोड़ दे क्योंकि उसकी समयसीमा बढ़ाने से भी कुछ नहीं होगा।
99 महीनों के बाद, समिति ने आश्वासन छोड़ दिया।
साल 2013 में सेना के लिए ऑगस्टावेस्टलैंड हेलीकॉप्टर खरीदने के 3,600 करोड़ रुपए के सौदे में भारी भ्रष्टाचार के आरोपों की ख़बरें आना शुरू हुईं। आरोप लगाया गया कि 12 "वीवीआईपी" हेलीकॉप्टर खरीदने के लिए बिचौलियों को रिश्वत दी गई थी। कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी ने 26 अगस्त 2013 को संसद को आश्वासन दिया कि सीबीआई मामले की जांच कर रही है, जिसे ऑगस्टा वेस्टलैंड हेलीकॉप्टर घोटाले के रूप में जाना जाता है।
दिसंबर 2015 में, भाजपा के नेतृत्व वाली नई सरकार के तहत, मंत्रालय ने आश्वासन समिति से आश्वासन छोड़ने का अनुरोध किया।
सरकार का कहना था कि "सीबीआई जांच पूरी होने की समयसीमा जानना संभव नहीं है, मामले में अभी भी नए खुलासे हो रहे हैं"।
समिति ने जवाब दिया कि चूंकि मामला राष्ट्रीय सुरक्षा का है, इसलिए इसे केवल इस आधार पर नहीं हटाया जा सकता कि जांच चल रही है। समिति ने मंत्रालय से सीबीआई के साथ तालमेल बिठाकर जांच में तेजी लाने के लिए कहा।
एक ओर संसद में सरकार चाहती थी कि घोटाले पर दिया गया आश्वासन रद्द कर दिया जाए, जबकि दूसरी ओर सार्वजनिक रूप से यह दावा करती रही कि जांच में दोषी पाए जाने वालों पर कार्रवाई की जाएगी।
2016 में मामले को लेकर कांग्रेस और सरकार के बीच राजनैतिक खींचतान का एक और दौर चला। कांग्रेस ने घोटाले को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर इतालवी सरकार के साथ सौदा करने का आरोप लगाया था। जवाब में सरकार ने कहा, "वर्तमान सरकार ने प्रभावी कदम उठाया है। सच्चाई सामने लाने के लिए कार्रवाई की जाएगी और इस मामले में भ्रष्टों और गलत काम करने वालों को न्याय के कठघरे में लाने के लिए सभी उपाय करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाएगी।''
"इसमें काफी समय इसलिए लगा क्योंकि इस घोटाले के कुछ प्रमुख आरोपी देश से बाहर हैं," सरकार ने अप्रैल 2016 में कहा।
फिर भी, पूरे चार साल बाद जुलाई 2020 में केंद्रीय रक्षा मंत्रालय ने कहा कि जांच "कुछ समय और चलेगी" और आश्वासन को रद्द कराने के लिए एक बार फिर कोशिश की। मंत्रालय ने समिति को बताया कि सीबीआई ने आरोप पत्र दायर किया है।
राज्यसभा ने सरकार को सौंपी सिफ़ारिशों में सुझाव दिया था कि सरकारों को केवल इसलिए आश्वासन रद्द करने के लिए नहीं कहना चाहिए क्योंकि जांच में समय लग रहा है। इसके बजाय, सरकार को जांच में हुई प्रगति पर नियमित रूप से समिति को जानकारी देनी होगी।
लेकिन, संसद की आश्वासन समितियां बिना किसी निर्धारित नियम और कानून के जिस रहस्यमय तरीके से काम करती हैं, उसी तरह 91 महीने बाद यह आश्वासन हटा दिया गया। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार राजनैतिक लाभ के लिए घोटाले का फायदा उठाने के लिए स्वतंत्र है, और दोनों सदनों के बाहर की गई बयानबाजी पर सरकार संसद के प्रति जवाबदेह नहीं है।
आश्वासनों का डाटाबेस
◍ ड्रॉप किया गया
आश्वासन कब दिया गया :08.05.2015
समिति ने इसे कब हटाया : 09.12.2021
सदन : लोकसभा
कुल लंबित अवधि : 67 महीने
◍ ड्रॉप किया गया
आश्वासन कब दिया गया : 09.12.2022
समिति ने कब हटाया : 06.02.2024
सदन : लोकसभा
कुल लंबित अवधि : 14 months
◍ ड्रॉप किया गया
आश्वासन कब दिया गया : 04.03.2016
समिति ने कब हटाया : 09.12.2021
सदन :लोकसभा
कुल लंबित अवधि : 69 months
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