environment Ministry
संसद की अवहेलना
प्रदूषणकारी उद्योगों को रोकने के लिए एक कश्मीरी सांसद ने पर्यावरण मंत्रालय से लड़ी जंग
सत्तासीन नेता संसद में बैठ कर जनता को कई आश्वासन देते हैं। इस श्रृंखला में द कलेक्टिव इस बात की जांच कर रहा है कि उन आश्वासनों का क्या हुआ, क्योंकि हमने अपने पाठकों से वादा किया है कि हम शक्तिशाली लोगों की जवाबदेही तय करेंगे।
नई दिल्ली: पर्यावरण की सुरक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं पर बड़ी-बड़ी बातें करने में तो सरकारें माहिर हैं, लेकिन ज्यादातर मामलों में वह उस हिसाब से काम नहीं कर पाती हैं। सरकारी रिकॉर्ड बताते हैं कि जब प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों से निपटने की बात आती है, तो अक्सर ही ऐसा होता है।
क्या होता है जब जनता का कोई प्रतिनिधि वास्तव में आगे आकर सरकार को जवाबदेह ठहराने का प्रयास करता है, और जनसाधारण के स्वास्थ्य को प्रदूषित वातावरण से बचाने के लिए वास्तविक कार्रवाई की मांग करता है?
जम्मू-कश्मीर के पूर्व सांसद हसनैन मसूदी और केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के बीच हुई खींचतान दर्शाती है कि कभी-कभार इस तरह के प्रयास सरकार को समस्या का संज्ञान लेने और कार्रवाई करने के लिए मजबूर करते हैं।
फिर भी, वास्तविक बदलाव लाने में समय लगता है।
जुलाई 2019 में अनंतनाग के तत्कालीन लोकसभा सांसद मसूदी ने केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) से पूछा कि क्या ख्रीव-खोनमोह क्षेत्र में 20 से अधिक सीमेंट कारखानों और चूना पत्थर खदानों के कारण होने वाले वायु प्रदूषण का अध्ययन करने की केंद्र सरकार की कोई योजना है। ख्रीव-खोनमोह एक सीमेंट विनिर्माण बेल्ट है, जो कश्मीर में श्रीनगर से पुलवामा तक फैली हुई है।
यह जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा छिन जाने और उसे केंद्र शासित प्रदेश बनाए जाने के एक महीना पहले की बात है। केंद्र सरकार ने राज्य के लोगों का विकास करने के नाम पर इसे सीधे अपने नियंत्रण में ले लिया था।
सीमेंट फैक्ट्रियों से होनेवाले अनियंत्रित वायु प्रदूषण के कारण मसूदी के निर्वाचन क्षेत्र में लोगों को अक्सर सांस की समस्याओं का सामना करना पड़ता था। इससे वह बहुत परेशान थे।
मसूदी ने द रिपोर्टर्स कलेक्टिव को बताया कि "सीमेंट कारखानों और चूना पत्थर खनन ने न केवल ख्रीव के लोगों के स्वास्थ्य पर, बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ केसर और बादाम की खेती पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाला है।"
"कारखानों से इतनी धूल उड़ती है कि हवा में प्रदूषण दिखता है," उन्होंने कहा।
परेशान होकर मसूदी ने पर्यावरण मंत्रालय से पूछा कि क्या उसने क्षेत्र में सीमेंट उद्योग द्वारा कृषि, बागवानी और केसर की खेती को हुए नुकसान पर कोई अध्ययन किया है।
तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण राज्य मंत्री बाबुल सुप्रियो ने मसूदी को जवाब दिया। उन्होंने कहा कि सीमेंट संयंत्रों से होने वाले प्रदूषण पर विशेष रूप से गौर करने के लिए इस तरह के अध्ययन के बारे में सोचा भी नहीं गया था।
लेकिन, उन्होंने आश्वासन दिया कि जम्मू और कश्मीर राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इसका अध्ययन करेगा कि क्षेत्र की 'प्रदूषण वहन क्षमता' कितनी है -- यानी पता लगाया जाएगा कि हवा में प्रदूषकों के उचित स्तर की सीमा का उल्लंघन किए बिना क्षेत्र में कितना अधिकतम उत्सर्जन हो सकता है। जिन क्षेत्रों में प्रदूषण इस क्षमता के ऊपर हो जाता है, वहां मौजूद प्रदूषणकारी उद्योगों को प्रतिबंधित या विनियमित करने के लिए इस तरह के अध्ययन किए जाते हैं।
लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण पर प्रदूषणकारी सीमेंट उद्योग के प्रभाव के बारे में मसूदी की चिंताएं पूरी तरह जायज़ थीं। इंटरनेट पर उपलब्ध अध्ययनों से पता चलता है कि सीमेंट की धूल से सांस की बीमारी, फेफड़ों की क्षमता में कमी और फेफड़ों, पेट और बृहदान्त्र का कैंसर हो सकता है।
पिछले कुछ सालों में मीडिया रिपोर्टों और जनता की शिकायतों में पहले ही सीमेंट उद्योग के प्रभावों के बारे में चिंताएं जताई गईं थीं। ख्रीव के लोगों में श्वसन संबंधी बीमारियों के साथ-साथ त्वचा और आंखों की बीमारियों की अधिकता से डॉक्टर चिंतित थे।
सुप्रियो का दावा कि राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा एक अध्ययन किया जा रहा है, जिसे संसद के निचले सदन को दिया गया एक आश्वासन माना गया -- केंद्र सरकार को अब तीन महीने में इसे पूरा करना आवश्यक था।
पार्लियामेंट डिफाइड श्रृंखला के भाग 7 में हम देखेंगे कि कैसे पर्यावरण मंत्रालय ने अपने आश्वासन पर अमल करने और ख्रेव-खोनमोह बेल्ट के लोगों के जीवन को संकट में डालने वाले वायु प्रदूषण के गंभीर मुद्दे को मॉनिटर करने की बजाय, अपनी ज़िम्मेदारी से हाथ झाड़ लिए; और केंद्र सरकार के
वैसे तो भारत की जनता नेताओं के ऐसे बड़े-बड़े वादों की आदी हो चुकी है जिनको पूरा करना संभव नहीं लगता, लेकिन संसद में दिए गए आश्वासनों का एक आदर और महत्व होता है, जिसे सरकारी जवाबदेही सुनिश्चित करने की प्रणाली द्वारा बरकरार रखा जाता है। "पार्लियामेंट डिफाइड" यानि "संसद की अवहेलना" हमारी खोजी श्रृंखला है जिसमें हम इन संसदीय वादों पर प्रकाश डालते हैं और उनके परिणामों का पता लगाते हैं।
पिछले पांच सालों में 55 मंत्रालयों को कवर करने वाली हजारों पन्नों की 100 से अधिक संसदीय रिपोर्टों के विस्तृत विश्लेषण के बाद, हमारे संवाददाताओं ने सरकारी आश्वासनों की असलियत को उजागर किया है।
मसूदी द्वारा पहली बार सवाल पूछे जाने के एक साल बाद, अनंतनाग में लोगों के स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए कदम उठाने के बजाय पर्यावरण मंत्रालय अपने वादे से मुकर गया।
केंद्र सरकार ने राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट साझा नहीं की। लेकिन, मार्च 2020 में उसने लोकसभा समिति से आश्वासन छोड़ने को कहा। दूसरे शब्दों में इसका मतलब था कि भविष्य में सरकार से रिपोर्ट न मांगी जाए।
पर्यावरण मंत्रालय ने अपनी मांग के समर्थन में एक टेढ़ी सी दलील दी।
उसने कहा कि "निर्माण और विध्वंस अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 का कार्यान्वयन, जिसे समिति ने आश्वासन माना है, वह मंत्रालय का नियमित कार्य है"।
मंत्रालय ने जिस प्रकार की वहन क्षमता का अध्ययन करने का वादा किया था, वह पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत किया जाता है और प्रदूषण का स्तर अधिक होने पर हानिकारक औद्योगिक गतिविधि को प्रतिबंधित या विनियमित करने के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है।
मंत्रालय ने समिति के साथ अपने संवाद में कहा कि वह प्रासंगिक नियमों के प्रभावी कार्यान्वयन को सुनिश्चित कर रहा है और हितधारकों से परामर्श कर रहा है, लेकिन यह भी कहा कि किसी नए नीतिगत हस्तक्षेप काम नहीं हो रहा है। मंत्रालय ने समिति से अनुरोध किया कि वह (मंत्री के) "बयान को आश्वासन न समझे"। संसदीय समिति ने मंत्रालय की बात मान ली।
कुछ महीने बाद, अगस्त 2020 में आश्वासन हटा दिया गया।
सरकार ने मसूदी के सवाल को कम से कम सार्वजनिक रूप से नजरअंदाज कर दिया था। हालांकि, पर्दे के पीछे सरकारी कार्रवाई जारी थी। सरकारी और संसदीय दस्तावेजों की समीक्षा से पता चलता है कि अक्टूबर 2020 तक, पर्यावरण मंत्रालय को जम्मू-कश्मीर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से एक रिपोर्ट प्राप्त हुई थी।
बोर्ड ने संकेत दिया था कि उक्त रिपोर्ट विशेष रूप से संसद में दिए गए आश्वासन को पूरा करने के लिए प्रस्तुत की गई थी।
सरकार ने न तो रिपोर्ट को सार्वजनिक किया और न ही इसे समिति के पास भेजा -- जहां पहले ही उसने आश्वासन हटवा दिया था।
राज्य प्रदूषण बोर्ड ने मसूदी के आरोपों की पुष्टि की। रिपोर्ट में यहां तक कहा गया कि क्षेत्र "गंभीर रूप से प्रदूषित" है। इस वाक्य का उपयोग सरकार प्रदूषण के खतरनाक स्तर के लिए करती है या तब करती है जब नियमों के तहत प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों पर दंड और तत्काल प्रतिबंध की आवश्यकता होती है।
रिपोर्ट में कहा गया कि क्षेत्र में ने वायु प्रदूषण फैलाने में सीमेंट उद्योग ने भूमिका निभाई है।
समस्या को स्वीकार करने के बावजूद, राज्य प्रदूषण बोर्ड ने इसकी जिम्मेदारी लोगों पर डालते हुए कहा कि "सर्दियों के दौरान घरेलू और धार्मिक स्थानों में गर्मी पैदा करने के लिए हमाम में भारी मात्रा में लकड़ी का इस्तेमाल" किया गया।
रिपोर्ट में कहा गया कि "सर्दियों में लोग खुद को कड़कड़ाती ठंड से बचाने के लिए लकड़ी का कोयला बनाने के लिए कृषि अपशिष्ट उत्पादों, पेड़ों की टहनियों और पत्तियों को जलाते हैं, जिसके कारण भी वायु प्रदूषण होता है।"
लोगों की ठंड से बचने की आवश्यकता और लाभ कमाने वाले सीमेंट उद्योगों द्वारा प्रदूषण मानकों के उल्लंघन को एक बराबर माना गया।
बोर्ड ने यह जरूर कहा कि "लोगों के स्वास्थ्य पर वायु प्रदूषण के दुष्प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता"। बोर्ड ने अपनी सिफारिशों में नई प्रदूषणकारी सीमेंट विनिर्माण इकाइयों की स्थापना पर रोक लगाने, वायु प्रदूषण की जांच के लिए एक्शन प्लान लागू करने, उद्योगों द्वारा पेड़ों की ग्रीन बेल्ट बनाने की आवश्यकता और सरकार से वायु गुणवत्ता मॉनिटरिंग प्रणाली लगाने का आग्रह किया।
आधिकारिक दस्तावेजों के अनुसार, यह चिंताजनक रिपोर्ट भी सरकार को ठोस कार्रवाई के लिए प्रेरित करने में नाकाम रही। उद्योगों से प्रदूषण बदस्तूर जारी रहा। सीमेंट और पत्थर तोड़ने वाली यूनिटों से धूल उड़ती रही और स्थानीय निवासी इसकी शिकायत करते रहे।
दो साल बीत गए। मसूदी नरम नहीं पड़े। मार्च 2022 में उन्होंने इस मुद्दे को लोकसभा में 'शून्य काल' के दौरान फिर से उठाया। इस अवधि में सांसद बिना पूर्व सूचना के जरूरी मुद्दे उठा सकते हैं।
उन्होंने मांग की कि ख्रेव क्षेत्र में हर सीमेंट यूनिट और उसके पर्यावरण अनुपालन की स्थिति की स्वतंत्र जांच की जाए।
पर्यावरण संरक्षण कानूनों के तहत हर प्रदूषणकारी इकाई को सरकारी मंजूरी लेना आवश्यक है, जिसमें वायु और जल प्रदूषण की रोकथाम और हानिकारक कचरे के निपटान से जुड़े नियमों का पालन करने की शर्त भी होती। यह स्वीकृतियां पर्यावरण पर उनके हानिकारक प्रभावों को सीमित करने के लिए बनाए गए नियमों और शर्तों के साथ दी जाती हैं। कानूनों के तहत, उद्योगों को संचालन की अनुमति पाने के लिए इन नियमों का पालन करना होता है।
"प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों से अपेक्षा की जाती है कि वे किसी क्षेत्र के प्रदूषण स्तर और प्रदूषणकारी उद्योगों के प्रभाव का अध्ययन और निगरानी करें और अपने अध्ययन के आधार पर उद्योगों को मंजूरी दें। लेकिन, जब वे ऐसा नहीं करते हैं तो वे नियामकों की जगह प्रदूषणकारी उद्योगों के सहायक बन जाते हैं," मसूदी ने कहा।
मसूदी की मांग के कारण पर्यावरण मंत्रालय, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और जम्मू-कश्मीर के राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के बीच पत्राचार का सिलसिला शुरू हुआ। केंद्रीय बोर्ड ने जुलाई 2022 में राज्य निकाय से अनंतनाग संसदीय क्षेत्र में सभी सीमेंट उद्योगों की पर्यावरण अनुपालन स्थिति बताने के लिए कहा। बार-बार याद दिलाने पर ही राज्य बोर्ड की नींद टूटी।
अक्टूबर 2022 में जम्मू-कश्मीर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अनंतनाग निर्वाचन क्षेत्र में स्थित नौ सीमेंट संयंत्रों पर एक स्टेटस रिपोर्ट दी। बोर्ड ने सभी सीमेंट संयंत्रों को क्लीन चिट दे दी। इलाके के लोग गंभीर प्रदूषण झेलते रहे, लेकिन मामले को इधर-उधर घुमाने की सरकारी प्रवृत्ति नहीं बदली।
मसूदी ने हार नहीं मानी। उन्होंने एक बार फिर केंद्रीय बोर्ड को पत्र लिखकर स्वतंत्र मूल्यांकन की मांग की। यह मांग जायज़ थी। क्योंकि यदि राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड सीमेंट संयंत्रों को प्रदूषण फैलाने का दोषी ठहराता, तो क्षेत्र में वायु प्रदूषण नियंत्रित करने की उसकी क्षमता पर भी सवाल खड़े होते।
मसूदी ने दिसंबर 2022 में तीसरी बार इस मुद्दे को संसद में उठाया।
मंत्रालय थोड़ा नरम पड़ा। हालांकि उसने स्वतंत्र समिति का गठन नहीं किया, लेकिन मार्च 2023 में ख्रीव में एक केंद्रीय अधिकारियों की एक टीम भेजी।
संयुक्त टीम ने पाया कि सभी सीमेंट संयंत्र और उनसे जुड़ी खदानें पर्यावरण संरक्षण कानूनों का उल्लंघन कर रही थीं।
टीम ने पाया कि किसी भी फैक्ट्री ने नियमों के मुताबिक ग्रीन बेल्ट को बरक़रार नहीं रखा था और क्षेत्र में लगभग 30 स्टोन क्रशर धूल को नियंत्रित करने के किसी भी उपाय के बिना चल रहे थे। टीम ने "अधिकांश खनन स्थलों पर अवैध खनन देखा या उसका संदेह जताया"।
टीम ने सुझाव दिया कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड सीमेंट संयंत्रों या राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को निर्देश दे कि वह संयत्रों द्वारा पर्यावरणीय मानदंडों का अनुपालन सुनिश्चित करें। उसने कहा कि एक पर्यावरण ऑडिट किया जाना चाहिए।
इसने अवैध खनन के मुद्दे के समाधान के लिए थर्ड पार्टी ऑडिट का भी सुझाव दिया। टीम की रिपोर्ट आंखें खोलने वाली थी। मसूदी के सवालों के जवाब में इसे दिसंबर 2023 में संसद में पेश किया गया। मंत्रालय ने कहा कि पर्यावरण मानदंडों का उल्लंघन करने के लिए सात सीमेंट संयंत्रों को कानूनी नोटिस भेजे गए हैं।
यदि मसूदी ने लोकसभा में चौथी बार सवाल नहीं किया होता तो यह रिपोर्ट प्रकाश में नहीं आती। उनके दबाव के कारण केंद्र सरकार को नवीनतम केंद्रीय रिपोर्ट और 2020 में राज्य द्वारा दी गई एक रिपोर्ट, दोनों सदन में पेश करनी पड़ी। इस रिपोर्ट में भी ख्रीव क्षेत्र में प्रदूषण की मुख्य वजह सीमेंट और चूना पत्थर संयंत्रों को बताया गया था।
प्रारंभिक जांच के तीन साल बाद, केंद्र सरकार को अनंतनाग की समस्या को स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा। क्या इससे प्रदूषण रोकने में मदद मिली? यह अलग जांच का विषय है। मसूदी, जो अब सांसद नहीं हैं, कहते हैं कि उन्हें जमीन पर ज्यादा बदलाव नहीं दिखा।
"सीमेंट उद्योग और चूना पत्थर खनन के वास्तविक पर्यावरणीय प्रभाव का पता लगाने के लिए एक पर्यावरणीय ऑडिट करने की जरूरत है। हमने ध्यान रखना चाहिए कि यह क्षेत्र दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान के नज़दीक है, जो गंभीर रूप से लुप्तप्राय हंगुल (कश्मीरी लाल हिरण) का हैबिटैट है," उन्होंने कहा।
यह वादे भी नहीं हुए पूरे
जरूरी नहीं कि सरकारें विशेषज्ञ समितियों का गठन हर बार पेचीदा मुद्दों के समाधान ढूंढने के लिए ही करें, कभी-कभी समय बिताने या बिना ज़ाहिर किए किसी प्रस्ताव को चुपचाप खत्म करने के लिए भी ऐसा किया जाता है।
इसलिए, जब संसद ने पश्चिमी घाट की इकोलॉजी का अध्ययन करने के लिए कस्तूरीरंगन समिति की रिपोर्ट के कार्यान्वयन के बारे में पूछताछ की, तो केंद्र सरकार ने और समय मांगने के लिए अनोखा तर्क दिया। सरकार ने कहा कि समिति का गठन अपने आप में एक कार्रवाई थी और उससे अध्ययन के नतीजे या कार्यान्वयन के बारे में जवाब नहीं मांगा जाना चाहिए।
अप्रैल 2013 में केंद्र सरकार को सौंपी गई कस्तूरीरंगन रिपोर्ट ने सुझाव दिया था कि पश्चिमी घाटों के 37% हिस्से को पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील क्षेत्र (ईएसए) घोषित किया जाए और खनन, उत्खनन और औद्योगिक गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाया जाए।
इससे पहले एक समिति ने पश्चिमी घाटों के 64% हिस्से को ईएसए घोषित करने और खनन और औद्योगिक गतिविधि पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी। इस रिपोर्ट का कई राज्यों ने विरोध किया था, जिसके बाद कस्तूरीरंगन समिति का गठन किया गया था।
कई राज्य सरकारों ने स्थानीय विकास, कृषि और हॉर्टिकल्चर पर प्रतिबंधों का हवाला देते हुए रिपोर्ट के कार्यान्वयन का विरोध किया है। साथ ही यह डर भी है कि राज्य सरकारें और स्थानीय समुदाय इन क्षेत्रों पर नियंत्रण खो देंगे।
केंद्र द्वारा अधिसूचित ईएसए उद्योगों के संचालन को प्रतिबंधित करता है। कई लोग यह भी मानते हैं कि राज्यों का विरोध बड़े उद्योगपतियों के दबाव के कारण है, जो क्षेत्र में औद्योगिक गतिविधियां जारी रखना चाहते हैं।
कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार भी इस मुद्दे को हल करने में असमर्थ रही थी, लेकिन उसे मुद्दे का संज्ञान लेने पर विवश होना पड़ा था, क्योंकि उसके द्वारा गठित प्रख्यात वैज्ञानिकों की समितियों ने ही यह रिपोर्टें दी थीं। दिसंबर 2012 में लोकसभा सांसद बीवाई राघवेंद्र ने पर्यावरण मंत्रालय से पश्चिमी घाट को विश्व धरोहर घोषित करने पर राज्यों के विरोध के बारे में पूछा और जानना चाहा कि मंत्रालय ने इससे निपटने की क्या योजना बनाई है।
जवाब में, मंत्रालय ने कहा कि उसने पश्चिमी घाट के इकोलॉजिकल संरक्षण का अध्ययन करने के लिए एक उच्च स्तरीय वर्किंग ग्रुप -- कस्तूरीरंगन समिति -- का गठन किया है। इसे आश्वासन के रूप में माना गया।
हालांकि, बाद की केंद्र सरकारों ने अध्ययन के संबंध में किए गए सवालों को टाल दिया।
अगस्त 2013 में कस्तूरीरंगन रिपोर्ट जारी होने के तीन महीने बाद, तत्कालीन यूपीए सरकार ने संसद से आश्वासन हटाने के लिए कहा।
जब नरेंद्र मोदी सरकार ने दिल्ली में सत्ता संभाली, तो उसके सामने भी यही चुनौती थी कि राज्य सरकारों की मांगों को पूरा करते हुए पर्यावरण संरक्षण के प्रति गंभीरता कैसे साबित की जाए।
इस मुश्किल स्थिति से बचने की बारी अब मोदी सरकार की थी। उसने भी दो बार -- अक्टूबर 2018 और जुलाई 2019 -- आश्वासन हटाने का अनुरोध किया।
और इसके लिए एक अनोखी दलील दी कि उच्च स्तरीय वर्किंग ग्रुप का गठन अपने आप में "मंत्रालय द्वारा की गई एक कार्रवाई है और यह प्रक्रिया अभी जारी है"। इस बात की संभावना नहीं है कि अध्ययन के नतीजे वर्तमान स्थिति को प्रभावित करेंगे और इसलिए इसे आश्वासन नहीं मानना चाहिए।
संसद में आश्वासन दिए जाने के 92 महीने बाद, अंततः जुलाई 2020 में इसे हटा दिया गया।
क्या आप जानते हैं कि कुछ न करने की 25-वर्षीय योजना कैसे बनाई जा सकती है? केंद्र सरकार ने इसका एक उदाहरण दिखाया जब उसने गुजरात के गिर राष्ट्रीय उद्यान से शेरों की अतिरिक्त आबादी का मध्य प्रदेश में स्थानांतरण रोकने का प्रयास किया।
दो दशकों से अधिक समय से वैज्ञानिकों चेतावनी देते रहे हैं कि गिर में शेरों की संख्या बहुत अधिक है, और उन सभी को एक ही इलाके में रखने से वे असुरक्षित हो जाते हैं। मध्य प्रदेश का पालपुर-कूनो वन्यजीव अभयारण्य लंबे समय से शेरों के इंतजार में है।
गुजरात सरकार के लिए यह साख का विषय था। लेकिन 2013 में उसे एक प्रतिकूल स्थिति का सामना करना पड़ा जब सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि शेरों को मध्य प्रदेश में स्थानांतरित किया जाना चाहिए।
नरेंद्र मोदी तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे। गुजरात सरकार की आपत्ति के कारण दो साल तक शेरों का स्थानांतरण नहीं किया गया। फिर 2015 में, मध्य प्रदेश के दो पूर्व कांग्रेस सांसदों, कमल नाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पर्यावरण मंत्रालय से अदालत के आदेश के कार्यान्वयन की स्थिति के बारे में पूछा। तब तक मोदी प्रधानमंत्री बन चुके थे. मंत्रालय ने संसद को यह बताने का एक अनोखा तरीका निकाला कि निकट भविष्य में ऐसा होने की संभावना नहीं है। इसने कहा कि शेरों का स्थानांतरण 25-वर्षीय योजना है।
और फिर पुराना नौकरशाही हथकंडा अपनाया गया: शीर्ष अदालत के आदेश को लागू करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया है। सरकारी आश्वासनों पर संसदीय समिति ने इसे सरकार की प्रतिबद्धता के रूप में दर्ज किया -- यानी एक आश्वासन जिस पर सरकार को तीन महीने में काम करना जरूरी है।
लेकिन, इस तथाकथित 25-वर्षीय योजना के पांच साल बिना किसी कार्रवाई के बीत गए। नवंबर 2020 में पर्यावरण मंत्रालय ने समिति से कहा कि उसे शेरों के बारे में दोबारा नहीं पूछना चाहिए क्योंकि अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है। मंत्रालय ने समिति से आश्वासन खारिज करने का अनुरोध किया क्योंकि मामला "माननीय सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन" है।
एक माह बाद मामला ख़त्म कर दिया गया।
दो साल पहले, भारत में चीतों को फिर से बसाने के प्रयास के रूप में कूनो पार्क में चीतों को लाया गया। और अब सरकार का कहना है कि यह समीक्षा करनी होगी कि क्या शेर और चीते एक साथ रह सकते हैं। शायद, अब एक और समिति गठित करने का समय आ गया है?
इसके बजाय, सरकार ने बरदा वन्यजीव अभयारण्य को शेरों के स्थानांतरण के लिए चुना है। यह अभयारण्य गुजरात में ही है।
आश्वासनों का डाटाबेस
◍ ड्रॉप किया गया
आश्वासन कब दिया गया :15.12.15
समिति ने इसे कब हटाया:23.03.21
सदन :लोकसभा
कुल लंबित अवधि : 63 महीने
◍ ड्रॉप किया गया
आश्वासन कब दिया गया :28.06.19
समिति ने इसे कब हटाया :17.03.21
सदन :लोकसभा
कुल लंबित अवधि : 25 महीने
◍ ड्रॉप किया गया
आश्वासन कब दिया गया :28.06.19
समिति ने इसे कब हटाया :17.03.21
सदन :लोकसभा
कुल लंबित अवधि : 25 महीने
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