संसद की अवहेलना
अडानी की जांच पर संसद में वादे कर कैसे बार-बार मुकरी सरकार
सत्तासीन नेता संसद में बैठ कर जनता को कई आश्वासन देते हैं। इस श्रृंखला में द कलेक्टिव इस बात की जांच कर रहा है कि उन आश्वासनों का क्या हुआ, क्योंकि हमने अपने पाठकों से वादा किया है कि हम शक्तिशाली लोगों की जवाबदेही तय करेंगे।
New Delhi: लगभग दस साल पहले, भारत की तस्करी विरोधी एजेंसी ने एक ऐसी जांच शुरू की जिससे पूरे देश में खलबली मच सकती थी।
केंद्रीय वित्त मंत्रालय के तहत आनेवाले राजस्व खुफिया निदेशालय (डायरेक्टरेट ऑफ़ रेवेन्यू इंटेलिजेंस, या डीआरआई) को अडानी समूह, अनिल धीरूभाई अंबानी के रिलायंस समूह, एस्सार, जिंदल्स आदि चालीस कोयला आयातकों से जुड़े कोयला आयात में बड़े पैमाने पर धोखाधड़ी की संभावना का पता लगा।
अरबपतियों और अन्य प्रभावशाली व्यवसायियों ने कथित तौर पर भारतीय बिजली संयंत्रों के लिए इंडोनेशियाई कोयले के आयात की लागत बढ़ाकर भारी मुनाफा कमाया। आरोप था कि इसके कारण आम उपभोक्ता के लिए बिजली महंगी हो गई। इन बड़े व्यवसायियों में से कुछ को भारतीय जनता पार्टी का करीबी माना जाता है।
कोयला आयात की लागत कथित रूप से बढ़ाने के मुद्दे पर 2015 और 2016 के बीच, वित्त, ऊर्जा और कोयला मंत्रालयों को संबोधित करते हुए संसद में कम से कम छह प्रश्न उठाए गए। हर सवाल का मंत्रालयों ने मोटे तौर पर एक ही उत्तर दिया, कि डीआरआई मामले की जांच कर रहा है।
जब भी कोई मंत्री संसद के किसी भी सदन में कहता है कि किसी मामले पर कुछ किया जाएगा, तो उस बयान को एक आश्वासन माना जाता है। सरकार द्वारा दिए गए ऐसे सभी आश्वासनों को तीन महीने के भीतर लागू किया जाना होता है और इसकी निगरानी एक आश्वासन समिति द्वारा की जाती है। यह समिति एक वाचडॉग है जो सदनों में किए गए वादों पर जवाबदेही तय करती है।
इसलिए, अप्रैल 2015 के बाद से इन मंत्रालयों के बयान कि अडानी समूह और अन्य की जांच की जा रही है, आश्वासनों के रूप में दर्ज किए गए। सरकार अब जांच पूरी करने और जांच की प्रगति और निष्कर्षों पर सांसदों को जानकारी देने के लिए प्रतिबद्ध थी।
अगले छह वर्षों तक, संसद के दोनों सदनों की आश्वासन समितियां सरकार से बार-बार जांच के बारे में और खुलासा करने के लिए कहती रहीं -- लेकिन सरकार टालमटोल करती रही।
लेकिन यह एकलौता मामला नहीं था जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने अडानी समूह के कथित घोटालों की जांच करने की प्रतिबद्धता से पीछा छुड़ाने की कोशिश की। हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि पिछले नौ सालों में, मोदी सरकार ने सांसदों के सवालों के जवाब में कम से कम सात बार संसद को आश्वासन दिया कि वह अडानी समूह और दूसरी कंपनियों के कथित घोटालों की जांच कर रही है। सरकार के कई मंत्रालयों ने वादा किया कि वे जांच की स्थिति और परिणाम के बारे में बताएंगे।
कंपनी ने कहा कि पांच साल पहले दस्तावेज और विवरण जमा करवाने के बाद से डीआरआई ने उससे कोई और जानकारी नहीं मांगी है।
लेकिन द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने पाया है कि जब जनता और मीडिया का ध्यान दूसरी ओर हटा, और आश्वासनों ने विपक्ष के गुस्से को शांत कर दिया, तो केंद्र सरकार चुपचाप जांच करने और संसद के माध्यम से नागरिकों को इसकी जानकारी देने के वादे से पीछे हट गई।
अडानी समूह ने द रिपोर्टर्स कलेक्टिव को बताया:
“एक जिम्मेदार कंपनी के तौर पर, कार्गो के मूल्यांकन और निकासी के लिए, हम भारतीय सीमा शुल्क अधिकारियों द्वारा निर्धारित सभी मानक नियमों और विनियमों का पालन करते रहे हैं।”
कंपनी ने कहा कि पांच साल पहले दस्तावेज और विवरण जमा करवाने के बाद से डीआरआई ने उससे कोई और जानकारी नहीं मांगी है।
द कलेक्टिव को केंद्र सरकार से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है।
कंपनियों के लिए खुद को निर्दोष बताने की दलील देना स्वाभाविक है। लेकिन, चुनी हुई सरकार से उम्मीद की जाती है कि वह संसद के माध्यम से नागरिकों के प्रति जवाबदेह रहे।
वैसे तो भारत की जनता नेताओं के ऐसे बड़े-बड़े वादों की आदी हो चुकी है जिनको पूरा करना संभव नहीं लगता, लेकिन संसद में दिए गए आश्वासनों का एक आदर और महत्व होता है, जिसे सरकारी जवाबदेही सुनिश्चित करने की प्रणाली द्वारा बरकरार रखा जाता है। "पार्लियामेंट डिफाइड" यानि "संसद की अवहेलना" हमारी खोजी श्रृंखला है जिसमें हम इन संसदीय वादों पर प्रकाश डालते हैं और उनके परिणामों का पता लगाते हैं। पिछले पांच सालों में 55 मंत्रालयों को कवर करने वाली हजारों पन्नों की 100 से अधिक संसदीय रिपोर्टों के विस्तृत विश्लेषण के बाद, हमारे संवाददाताओं ने सरकारी आश्वासनों की असलियत को उजागर किया है।
खोजी श्रृंखला के इस पहले भाग में हम बताएंगे कि कैसे सरकार एक बड़े व्यापारिक समूह से जुड़े कथित भ्रष्टाचार की जांच पर संसद में बार-बार दिए गए आश्वासनों को पूरा करने में विफल रही।
वैसे तो भारत की जनता नेताओं के ऐसे बड़े-बड़े वादों की आदी हो चुकी है जिनको पूरा करना संभव नहीं लगता, लेकिन संसद में दिए गए आश्वासनों का एक आदर और महत्व होता है, जिसे सरकारी जवाबदेही सुनिश्चित करने की प्रणाली द्वारा बरकरार रखा जाता है। “पार्लियामेंट डिफाइड” यानि “संसद की अवहेलना” हमारी खोजी श्रृंखला है जिसमें हम इन संसदीय वादों पर प्रकाश डालते हैं और उनके परिणामों का पता लगाते हैं।
पिछले पांच सालों में 55 मंत्रालयों को कवर करने वाली हजारों पन्नों की 100 से अधिक संसदीय रिपोर्टों के विस्तृत विश्लेषण के बाद, हमारे संवाददाताओं ने सरकारी आश्वासनों की असलियत को उजागर किया है।
सरकारी वादे
धोखा न देना या झूठ न बोलना संसद के प्रमुख नियमों में से एक है।
लोकसभा और राज्यसभा के अधिकारियों की टीमें संसद के दोनों सदनों में दिए गए मंत्रियों के भाषणों, टिप्पणियों, बयानों और जवाबों के प्रत्येक शब्द की सावधानीपूर्वक समीक्षा करती हैं।
जब कोई मंत्री संसद में कहता है कि किसी विशिष्ट मामले पर कुछ किया जाएगा तो ऐसे बयान को आश्वासन माना जाता है। "मैं इस पर गौर करूंगा" या "आंकड़े जुटाए जा रहे हैं" जैसे कुछ वाक्यों की एक पूर्व निर्धारित सूची यह तय करने में मदद करती है कि किस कथन को आश्वासन माना जाए। सरकार को ऐसे सभी आश्वासनों को तीन महीने के भीतर पूरा करना होता है।
उदाहरण के लिए, यदि किसी मंत्री से कोई प्रश्न पूछा जाता है और वह जवाब देते हैं कि उनके पास उत्तर नहीं है, बाद में देंगे, तो इस कथन को एक आश्वासन माना जाता है। यदि मंत्री सरकार को किसी विशिष्ट कार्रवाई के लिए प्रतिबद्ध करते हैं, मसलन वह कोई कानून लाएंगे, जांच करेंगे या एक समिति का गठन करेंगे, तो ऐसे वादों को सरकार द्वारा संसद के माध्यम से जनता को दिए गए आश्वासन माना जाता है।
जब ऐसा लगने लगता है कि आश्वासन पूरे होते नहीं दिख रहे हैं, तो आश्वासन समिति संबंधित मंत्रालय के अधिकारियों से आश्वासनों पर हुई प्रगति की स्थिति की जानकारी मांगती है और उसके समर्थन में साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए कहती है। प्रत्येक सदन के लिए अलग आश्वासन समिति होती है जिसमें अध्यक्ष द्वारा चुने गए सांसद होते हैं।
इन समितियों का उद्देश्य है कि सरकार संसद में किए गए दावों और वादों के लिए जवाबदेह रहे।
लेकिन एक खामी है जो आश्वासन समितियों को शक्तिहीन बना देती है। संसद में अपने आश्वासनों से मुकरने वाले मंत्रियों को दंडित करने का कोई प्रावधान नहीं है। यहां तक कि आश्वासन समितियों की रिपोर्ट पर संसद में भी चर्चा नहीं होती है। जिसके कारण दशकों से मंत्री वादे और दावे करते रहे हैं, लेकिन बाद में अपने बयानों से मुकर जाते हैं और उनपर कोई कार्रवाई नहीं होती।
वादों से मुकरने की सरकारी कला
अडानी समूह द्वारा कथित भ्रष्टाचार के इस मामले में भाजपा सरकार संसद को जांच की स्थिति के बारे में बताने के वादे से पीछे हट गई। इसके बजाय, सरकार ने संसद से सब कुछ भूल जाने को कहा।
वित्त मंत्रालय ने अक्टूबर 2016 में पहली बार लोकसभा समिति से कहा कि इस आश्वासन की समीक्षा न की जाए। इसके लिए मंत्रालय ने दो कारण बताए: "जांच एजेंसियां विदेशों में एक हद तक ही जांच कर सकती हैं" और इस जांच में "बहुत समय लगेगा"।
समिति ने माना जांच में समय लगेगा, लेकिन आश्वासन की समीक्षा बंद करने से इंकार कर दिया। समिति ने कहा, "जिस तरह की अनियमितताएं हुई हैं, उन्हें देखते हुए जरूरी है कि गहन जांच की जाए और जवाबदेही तय कर उचित कार्रवाई की जाए"।
लेकिन केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने यह नहीं बताया कि डीआरआई को विदेशों से संपर्क करने के लिए इसलिए मजबूर होना पड़ा क्योंकि कम से कम दो भारतीय पब्लिक सेक्टर बैंकों ने जांच में सहयोग करने से मना कर दिया था। बताया गया है कि भारतीय स्टेट बैंक ने ग्राहक की जानकारी की गोपनीयता का हवाला देते हुए डीआरआई के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया। हालांकि पब्लिक सेक्टर बैंक स्वायत्त निकाय हैं, फिर भी वित्त मंत्रालय अपने वित्तीय सेवा विभाग के माध्यम से उनके कामकाज को काफी हद तक नियंत्रित कर सकता है।
मंत्रालय ने यह भी नहीं बताया कि जांच शुरू करने वाले डीआरआई अधिकारियों को कैसे बीच में ही बदल दिया गया, जिससे कथित तौर पर जांच पटरी से उतर गई। इसे भी मीडिया ने उजागर किया।
भारतीय स्टेट बैंक की प्रमुख रहते हुए अरुंधति भट्टाचार्य ने डीआरआई की जांच में सहयोग करने से इनकार कर दिया था। दिसंबर 2017 में उन्हें देश में कोयला नीलामी के नियमों को तैयार करने के लिए बनी एक उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समिति में नियुक्त किया गया। समिति की सिफ़ारिशों से अंततः वर्तमान में लागू वाणिज्यिक कोयला नीलामी व्यवस्था की शुरुआत हुई। द रिपोर्टर्स कलेक्टिव द्वारा पहले की गई जांच से पता चला है कि कैसे केंद्र सरकार ने इस व्यवस्था के तहत निजी कंपनियों को अविश्वसनीय रूप से कम कीमतों पर कोयला ब्लॉक उपहार में दे दिए।
अक्टूबर 2017 में लोकसभा समिति ने केंद्रीय कोयला मंत्रालय का रुख किया। मंत्रालय ने मई 2015 में संसद को आश्वासन दिया था कि वह कोयला आयात में डीआरआई की जांच पर जानकारी एकत्र करेगा और डेटा पेश करेगा।
इस बार ज़िम्मेदारी से बचने की बारी कोयला मंत्रालय की थी, जिसका एक उत्कृष्ट उदाहरण पेश करते हुए उसने कहा, "मामले में कोयला मंत्रालय की कोई भूमिका नहीं है क्योंकि मामले की जांच राजस्व खुफिया निदेशालय कर रहा है।" मंत्रालय ने यह भी कहा कि जिन आयातकों के नाम दिए गए हैं, उनमें से अधिकांश के खिलाफ जांच जारी है जबकि चार के खिलाफ जांच बंद कर दी गई है।
लोकसभा की आश्वासन समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि वह डीआरआई के अधिकारियों से मुलाकात करेगी। लेकिन समिति की बाद की रिपोर्टों में इन बैठकों का विवरण मौजूद नहीं है।
अडानी समूह के खिलाफ भ्रष्टाचार का मामला 2016 में फिर से संसद में उठा। तत्कालीन ऊर्जा मंत्री से कोयला आयात के अधिक मूल्यांकन की जांच की स्थिति और गिरफ्तार किए गए लोगों की संख्या के बारे में पूछा गया। ऊर्जा मंत्रालय का उत्तर भी बाकी मंत्रालयों की तरह ही था: डीआरआई मामले की जांच कर रही है। इसे भी आश्वासन में बदल दिया गया, जिसका मतलब था कि सरकार फिर से जांच की स्थिति और निष्कर्ष साझा करने के लिए प्रतिबद्ध थी।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसके बजाय सरकार ने कहा कि संसद इस मामले पर सवाल उठाना बंद कर दे और इसे आश्वासनों की सूची से हटा दे।
मार्च 2018 में राज्यसभा की समिति ने जांच का विवरण प्रदान करने के इस आश्वासन को सूची से हटाने के केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के अनुरोध को खारिज कर दिया। लेकिन भाजपा सरकार अड़ी रही और कोई विस्तृत जानकारी नहीं दी।
आश्वासनों पर राज्यसभा समिति ने 2021 की एक रिपोर्ट में दर्ज किया है कि अडानी की जांच के बारे में सरकार से फिर सवाल किया गया। समिति ने केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय से कहा कि "आश्वासन गंभीर चिंता का विषय है और ऐसे मामलों में जांच जल्द पूरी की जानी चाहिए, ताकि दोषियों पर कार्रवाई की जा सके"।
हम पता नहीं लगा सके कि क्यों, लेकिन आश्वासन समिति भी बाद में अपने निर्णय से पलट गई और आश्वासन को हटा दिया गया।
फरवरी 2020 में लोकसभा समिति ने संसद में अपने आश्वासनों को पूरा नहीं करने के लिए वित्त मंत्रालय की खिंचाई की। समिति ने "अत्यधिक देरी" और "प्रभावहीन" मंत्रिस्तरीय प्रक्रिया की ओर ध्यान खींचा।
समिति ने वित्त मंत्रालय से कहा कि कोयला आयात के अधिक मूल्यांकन की जांच को आगे बढ़ाए। समिति ने मंत्रालय से कहा कि वह "अपने प्रयास तेज़ करे, सक्रिय दृष्टिकोण अपनाए और राजनयिक तथा दूसरे अंतर्राष्ट्रीय चैनलों का प्रयोग करे"।
फिर भी, साल भर बाद ही वित्त मंत्रालय ने फिर से आश्वासन को सूची से हटा देने का अनुरोध किया। मंत्रालय ने संसदीय समिति को बताया कि जांच जल्द पूरी होने की संभावना नहीं है।
मंत्रालय ने कहा, "आश्वासन 2016 से लंबित है और जल्द ही पूरा होने की संभावना नहीं है"।
इस अनुरोध को भी अस्वीकार कर दिया गया, समिति ने एक बार फिर मंत्रालय से "मामले को सख्ती से आगे बढ़ाने" के लिए कहा।
सरकार द्वारा इस प्रकार की देरी एक तरह से इंकार करने का एक तरीका है, क्योंकि उत्तर देना राजनैतिक रूप से हानिकारक हो सकता है। सरकार चाहती थी कि कथित रूप से कंपनियों के साथ साठगांठ और भ्रष्टाचार के इन मामलों की जांच पर संसद की नज़र न रहे।
सरकार की कोशिशें जारी रहीं, दिसंबर 2022 में वित्त मंत्रालय ने 'आश्वासन' को सूची से हटाने के लिए फिर से समिति का दरवाजा खटखटाया। सरकार की दलील थी कि "जांच के निष्कर्ष के लिए साक्ष्य (के रूप में जिन) दस्तावेजों (की जरूरत है) उनकी उपलब्धता डीआरआई के नियंत्रण में नहीं है"।
इस बार मंत्रालय सफल रहा। आश्वासन हटा दिया गया।
जहां डीआरआई की जांच एक दशक से लटकी हुई है और सरकार के संसदीय आश्वासन ठंडे बस्ते में हैं, वहीं फाइनेंशियल टाइम्स और ओसीसीआरपी के खोजी पत्रकार हाल ही में ऐसे सबूत पेश करने में कामयाब रहे हैं, जिनसे पता चलता है कि अडानी समूह ने आयातित कोयले का दाम अधिक बताया था। अडानी समूह का अभी भी यही कहना है कि उसने कोई गलत काम नहीं किया है। सरकार इस मुद्दे पर संसद की आंखों में धूल झोंकती रही है।
अडानी के खिलाफ एक और मामला
हिंडनबर्ग रिसर्च द्वारा अडानी समूह पर "कॉर्पोरेट इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला" करने और स्टॉक में हेरफेर करने का आरोप लगाने के दो साल पहले, तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा ने 19 जुलाई 2021 को वित्त मंत्रालय से एक सवाल पूछा था।
वास्तव में अडानी समूह के विदेशी निवेशकों का मालिक कौन है? महुआ मोइत्रा ने यह भी जानना चाहा कि क्या किसी विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक (एफपीआई) या अडानी समूह की संस्थाओं की "संदिग्ध लेनदेन" के लिए जांच की जा रही है।
तत्कालीन वित्तराज्य मंत्री ने अपने जवाब में कहा कि बाजार नियामक भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) "नियमों के अनुपालन" को लेकर "अडानी समूह की कुछ कंपनियों" की जांच कर रहा है।
मोइत्रा के पूछने के बावजूद न तो जवाब में जांच का कोई विवरण दिया गया और न ही यह बताया गया कि समूह की कंपनियों पर सेबी के किन नियमों को तोड़ने का संदेह है।
उन्होंने कहा कि "डीआरआई अपने कानूनों के तहत अडानी समूह की कंपनियों से संबंधित कुछ संस्थाओं की जांच कर रहा है"। सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारी से यह स्पष्ट हो गया कि जांच आयातित कोयले की अधिक कीमत से संबंधित थी।
इस जवाब को कि जांच चल रही है, एक आश्वासन माना गया।
सरकार ने अडानी समूह की कथित अवैध गतिविधियों की दोनों जांचों पर संसद को अंधेरे में रखना जारी रखा। और, जांच की संसदीय निगरानी की प्रक्रिया को समाप्त कराने का प्रयास भी जारी रखा।
इसलिए क्योंकि सरकार ने बार-बार दोहराया कि जांच में बहुत समय लगता है।
इस आश्वासन पर विचार-विमर्श के एकमात्र उपलब्ध रिकॉर्ड में, वित्त मंत्रालय ने 13 जनवरी 2023 को कहा कि इसे आश्वासन नहीं माना जाए क्योंकि दोनों जांच में विदेशी संस्थाएं शामिल हैं।
दस दिन बाद, हिंडनबर्ग रिसर्च ने एक रिपोर्ट जारी की जिससे हड़कंप मच गया।
रिपोर्ट में आरोप लगाया गया कि अडानी समूह अपने विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों के माध्यम से शेयरों के भाव में हेराफेरी कर रहा था। इस रिपोर्ट के बाद समूह को 153 बिलियन अमेरिकी डॉलर का भारी नुकसान उठाना पड़ा।
हिंडनबर्ग रिपोर्ट ने जनता के बीच एक बहस छेड़ दी और जांच की मांग उठी। लेकिन केंद्र सरकार नहीं चाहती थी कि जांच पर सवाल संसद में लंबे समय तक टिके रहें। मई 2023 में, सांसद महुआ मोइत्रा द्वारा सवाल उठाए जाने के लगभग दो साल बाद, लोकसभा आश्वासन समिति ने इस मामले को आश्वासन सूची से हटा दिया। कुछ महीनों बाद, उन्हें सवाल पूछने के लिए अडानी के प्रतिद्वंद्वी व्यवसायी से रिश्वत लेने का आरोप में लोकसभा से निष्कासित कर दिया गया। पता चला है कि सेबी ने हिंडनबर्ग रिसर्च के कामकाज पर सवाल उठाते हुए उसे नोटिस भेजा है।
अदानी समूह के प्रवक्ता ने द कलेक्टिव को बताया:
"एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी के रूप में, हमने आयकर अधिकारियों की मानक लेखांकन प्रथाओं और स्थानांतरण मूल्य निर्धारण नीति का भी अनुपालन किया है।"
अडानी समूह के कथित भ्रष्टाचार की जांच अब संसद के पटल से बाहर है। संसद की आश्वासन समितियों की विस्तृत प्रक्रिया इस मामले में विफल हो गई है।
यह वादे भी नहीं हुए पूरे
2021 के केंद्रीय बजट में मौजूद विनिवेश योजनाओं की विपक्ष ने आलोचना की थी। सांसदों का आरोप था कि यह सरकारी संपत्तियों को कुछ निजी कंपनियों को सौंपने की चाल है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ध्यान भटकाने और आक्रामक रुख अपनाने की कोशिश की।
"आपका इतना दुस्साहस कि हम पर पूंजीपतियों से साठगांठ का आरोप लगाएं! हम किसी भी पूंजीपति के लिए काम नहीं करते हैं। हम आम नागरिक के लिए काम करते हैं जो प्रधानमंत्री पर विश्वास करता है।"
“...कुछ पार्टियों द्वारा शासित राज्यों में दामादों को जमीन दी जाती है, जैसे राजस्थान और हरियाणा में एक समय किया जाता था। मैं आपको विस्तृत जानकारी दे सकती हूं।”
यहां परोक्ष रूप से दामाद का मतलब था कांग्रेस नेता सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा।
लेकिन उनका वक्तव्य "मैं आपको विस्तृत जानकारी दे सकती हूं" एक आश्वासन माना गया। सीतारमण को अब अपने बयान के पक्ष में और 'दामाद' के खिलाफ सबूत देना जरूरी था।
लोकसभा आश्वासन समिति ने सरकार से विपक्ष द्वारा कथित भ्रष्टाचार का विवरण उपलब्ध कराने को कहा, जिसका आरोप सीतारमण ने सदन में लगाया था।
"मंत्रालय के पास ऐसा कोई विवरण उपलब्ध नहीं है,"
वित्त मंत्रालय ने संसदीय समिति को बताया। यदि मंत्रालय के जवाब पर गौर किया जाए तो वित्तमंत्री ने संसद में झूठ बोला था। सरकार ने समिति से आश्वासन को सूची से हटाने का अनुरोध किया, और दलील दी कि वित्तमंत्री ने जो कहा वह आश्वासन नहीं माना जा सकता। समिति ने सरकार की बात मान ली।
यह पार्लियामेंट डिफाइड इन्वेस्टिगेटिव सीरीज़ का पहला भाग है। कल पढ़िए कैसे 'राष्ट्रहित' की बलि चढ़ाई जाती है।
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