कांगपोकपी/इंफाल: क्रिसमस की पूर्वसंध्या पर टिन की छत वाले एक अस्थायी बंकर के अंदर दो युवकों ने अपनी सिंगल-बैरल राइफलों को कस कर पकड़ रखा था। बोरियों के ढेर और भयानक सन्नाटे के बीच 19 वर्षीय चोनमिनलाल किपजिन और 26 वर्षीय पाओलाल किपजिन, कांगपोकपी जिले की पहाड़ियों पर घूम रहे थे। मुख्य रूप से ईसाई कुकी-ज़ो समुदाय के यह युवक, अपने प्रतिद्वंद्वी मैतेई समुदाय के सशस्त्र लड़ाकों की तलाश में थे।
वह खुद को विलेज वॉलिंटियर बता रहे थे -- यानी ऐसे आम नागरिक जिन्होंने अपने परिवारों की रक्षा के लिए हथियार उठाए थे।
वहां से थोड़ी ही दूर, मणिपुर की राजधानी इंफाल में बहुसंख्यक मैतेई समुदाय भी अपना सबसे पसंदीदा त्योहार निंगोल चाकोउबा इसी तरह के सन्नाटे के बीच मना रहा था। यह त्यौहार नवंबर की शुरुआत में मनाया जाता है।
पिछले ग्यारह महीनों से, भारत के पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में इन दोनों समुदायों के बीच हिंसा चल रही है। यह शायद 21वीं सदी में देश का सबसे लंबे समय तक चलने वाला सामुदायिक संघर्ष है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली संघीय सरकार की निगरानी में हो रहा है।
इस संघर्ष में 219 लोग मारे जा चुके हैं, 1,100 घायल हुए हैं और 60,000 लोग विस्थापित हुए हैं। इसने कई सारे सशस्त्र समूहों को पुनर्जीवित कर दिया है, जिनमें दोनों समुदायों से पुरुषों और लड़कों को भर्ती किया जा रहा है।
इस संघर्ष को अक्सर हिंदू मैतेई और ईसाई कुकी-ज़ो समुदायों के बीच सामुदायिक संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिसमें वैसा ही धार्मिक ध्रुवीकरण देखने को मिलता है जैसा कि भारत के दूसरे हिस्सों में हुए सांप्रदायिक संघर्षों और धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हमलों में। जबकि कुकी-ज़ो समुदाय लगभग पूरी तरह से ईसाई हैं, मैतेई समुदाय मुख्य रूप से हिंदू धर्म के एक समन्वित रूप और अपनी मूल सनमाही आस्था प्रणाली का पालन करता है। कुछ मैतेई लोग ईसाई धर्म और इस्लाम को भी मानते हैं।
लेकिन मणिपुर में मौजूद असम राइफल्स के अधिकारियों द्वारा तैयार किया गया एक पावरपॉइंट प्रेजेंटेशन एक दूसरी ही तस्वीर प्रस्तुत करता है, जो केवल मणिपुर के संघर्ष में देखी जा सकती है। असम राइफल्स केंद्र सरकार का अर्धसैनिक बल है, जिसका मणिपुर में एक लंबा और विवादास्पद इतिहास रहा है। असम राइफल्स देश का सबसे पुराना अर्धसैनिक बल है जो भारतीय सेना के साथ पूर्वोत्तर में कानून व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी संभालता है।
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने 2023 के अंत में इस प्रेजेंटेशन की समीक्षा की। प्रेजेंटेशन दिखाने वाले अधिकारी अपना नाम नहीं उजागर करना चाहते थे। उन्होंने द कलेक्टिव के रिपोर्टर को प्रेजेंटेशन में किए गए दावों के बारे में बताया। पावरपॉइंट में वैसे ही दावे किए गए थे जैसा एक अधिकारी ने मणिपुर संघर्ष के पीछे के कारणों को समझाते हुए द कलेक्टिव को बताया था।
प्रेजेंटेशन में हिंसा का आंशिक दोष मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह के नेतृत्व वाली राज्य सरकार और उनकी "राजनैतिक तानाशाही और महत्वाकांक्षा" पर दोष मढ़ा गया है। सिंह दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सदस्य हैं जो केंद्र में भी सत्ता में है।
यह केंद्र सरकार की किसी एजेंसी द्वारा स्पष्टवादी तरीके से किया गया पहला मूल्यांकन है जो सार्वजनिक जानकारी में आया है।
यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि आम चुनावों की तैयारियों के बीच, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस महीने की शुरुआत में दावा किया था कि केंद्र सरकार के समय पर हस्तक्षेप से "मणिपुर की स्थिति में उल्लेखनीय सुधार हुआ है।" यह दूसरा ही मौका था जब प्रधानमंत्री ने मणिपुर हिंसा के बारे में बात की। इसी बीच, केंद्रीय गृह मंत्री ने शांति स्थापित करने के लिए मुख्यमंत्री की क्षमता पर भरोसा जताया है, जो अब तक कोई समाधान नहीं निकाल पाए हैं।
प्रेजेंटेशन में हिंसा से निपट रहे अधिकारियों के मूल्यांकन के आधार पर संघर्ष के कथित कारणों को सूचीबद्ध किया गया है।
इसमें पड़ोसी देश म्यांमार से आए "अवैध आप्रवासियों" के प्रभाव और 'कुकीलैंड' की मांग के साथ-साथ प्रवासन को रोकने के लिए नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) की मांग को रेखांकित किया गया है।
राजनैतिक और सशस्त्र दोनों तरह के कुकी नेतृत्व द्वारा मणिपुर से अलग एक अलग प्रशासनिक इकाई 'कुकीलैंड' की मांग की जाती रही है, जो इस जातीय हिंसा के दौरान पुनर्जीवित हो गई।
इसके अतिरिक्त, प्रेजेंटेशन में दावा किया गया है कि मैतेई समुदाय के सशस्त्र समूह लोगों को हथियारों से लैस कर रहे हैं और कुकी समुदाय के सशस्त्र समूह 'वालिंटियर्स' का समर्थन कर रहे हैं।
इन सब कारणों से तनाव बढ़ा, जबकि दोनों समुदाय के नेताओं ने कोशिश की कि इस हिंसा को ऐसे पेश किया जाए जैसे आम लोग दूसरे समुदाय से आत्मरक्षा के लिए स्वेच्छा से आगे आ रहे हैं।
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव स्वतंत्र रूप से सत्यापित नहीं कर सका कि प्रेजेंटेशन में प्रस्तुत विचार संगठनात्मक रूप से असम राइफल्स द्वारा समर्थित हैं या नहीं। इसका पता लगाने के लिए हमने अर्धसैनिक बल के आधिकारिक प्रवक्ता को विस्तृत प्रश्न भेजे।
शुरू में एक प्रवक्ता ने कहा कि असम राइफल्स किसी "अफवाह" पर प्रतिक्रिया नहीं दे पाएगी।
बाद में भेजे गए एक ईमेल में असम राइफल्स ने "काल्पनिक या असत्यापित मामलों के संबंध में कोई चर्चा करने से सम्मानपूर्वक इनकार" कर दिया, और कहा कि "एक पेशेवर संस्थान के रूप में, हम अपने मूल कर्तव्यों और जिम्मेदारियों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, और इस समय इस मुद्दे पर हमारी कोई और टिप्पणी नहीं है" और बाद में प्रस्तुति की एक प्रति मांगी।
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने फिर से असम राइफल्स से अनुरोध किया है कि वह इस बात की पुष्टि करे कि क्या वह प्रेजेंटेशन में व्यक्त किए गए विचारों से सहमत है।
केंद्रीय गृह मंत्रालय और मणिपुर के मुख्यमंत्री कार्यालय से पूछे गए प्रश्नों का कोई उत्तर अबतक नहीं मिला है।
इस जांच के मूल रूप से प्रकाशित होने के कुछ घंटों बाद, असम राइफल्स ने एक बयान जारी कर कहा कि "इस रिपोर्ट के लेख को असम राइफल्स के संगठनात्मक दृष्टिकोण के रूप में नहीं माना जा सकता है।" बयान में दावा किया गया कि "असम राइफल्स द्वारा ऐसी कोई प्रस्तुति नहीं दी गई है"। द कलेक्टिव ने स्वतंत्र रूप से पुष्टि की है कि प्रस्तुति दी गई थी, और इसकी समीक्षा की है।
मुख्यमंत्री की भूमिका
हिंसा का तात्कालिक कारण था प्रभावशाली मैतेई समुदाय द्वारा अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने की मांग, जिसका कुकी-ज़ो समुदाय सहित अन्य जनजातीय समूहों ने विरोध किया था।
लेकिन उक्त प्रेजेंटेशन में असम राइफल्स के अधिकारी मुख्यमंत्री की उन नीतियों की ओर इशारा करते हैं, जिनसे उनका मानना है कि समुदायों के बीच दुश्मनी बढ़ी। इसमें संघर्ष भड़काने के अन्य कारणों के अलावा मुख्यमंत्री बीरेन सिंह का "ड्रग्स के खिलाफ युद्ध" पर "सख्त रुख" और "सोशल मीडिया पर मुखर असहमति की आशंका" का उल्लेख किया गया है।
प्रेजेंटेशन के अनुसार, सिंह पर आरोप है कि उन्होंने राज्य में ड्रग्स के उत्पादन, व्यापार और बिक्री को रोकने के अभियान के दौरान समुदायों को विभाजित किया। म्यांमार की सीमा से लगे राज्य के पहाड़ी इलाकों में मुख्य रूप से की जाने वाली पोस्ता की खेती के खिलाफ उनके उग्र अभियान ने यह धारणा घर कर दी कि वह कुकियों को निशाना बना रहे हैं।
जारी संघर्ष को लेकर, प्रेजेंटेशन में हिंसा को "राज्य बलों के मौन समर्थन" और "कानून-व्यवस्था मशीनरी के छिन्न-भिन्न होने" का भी हवाला दिया गया है।
प्रेजेंटेशन में बताया गया है कि संघर्ष का एक अन्य कारण "मैतेई पुनरुत्थानवाद" है। मैतेई समुदाय 18वीं सदी में हिंदू धर्म के आगमन और बाद में 1949 में मणिपुर के भारत में विलय से पहले की अपनी पहचान वापस पाने की इच्छा रखता है, इसे ही पुनरुत्थानवाद कहते हैं। इस लंबे इतिहास के दौरान प्रतिरोध बढ़ता गया, जिससे सनामाही आंदोलन का पुनरुद्धार हुआ और 1930 के दशक में और उसके बाद सशस्त्र आंदोलनों को भी बढ़ावा मिला।
प्रेजेंटेशन में संघर्ष को बढ़ावा देने वाले कारकों में हाल में गठित दो मैतेई संगठनों, मैतेई लीपुन और अरामबाई तेंगगोल को सूचीबद्ध किया गया है।
एक पुलिस अधिकारी ने मुझे बताया, अरामबाई तेंगगोल का गठन 2020 में "मणिपुर के राजा और भाजपा के सांसद (एमपी) लीशेम्बा सनाजाओबा के तत्वावधान में" किया गया था।
तेंगगोल का गठन शुरू में एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन के रूप में किया गया था जो सनमाही संस्कृति के पुनरुद्धार पर केंद्रित था और बाद में उसने हथियार उठा लिए। पिछले साल अप्रैल में कथित तौर पर मूलनिवासी सनमाही मान्यता का अपमान करने वाले एक मैतेई ईसाई पादरी के घर में तोड़फोड़ करने के बाद इसने विजिलांटि के रूप में और अधिक प्रतिष्ठा अर्जित की।
अरामबाई तेंगगोल के संचालक हैं टायसन नगांगबाम, जो अपने छद्म नाम "कोरौंगनबा खुमान" से जाने जाते हैं (कोरौंगनबा एक सामान्य मैतेई नाम है जिसका अर्थ है सूर्य का प्रकाश, जबकि खुमान एक कुल का नाम है)।
द कलेक्टिव ने नगांगबाम को उनके सोशल मीडिया अकाउंट के माध्यम से प्रश्न भेजे, जिसका उन्होंने संघर्ष के दौरान सक्रिय रूप से उपयोग किया है। उनकी प्रतिक्रिया मिलने पर यह रिपोर्ट अपडेट कर दी जाएगी।
हाल ही में, अरामबाई तेंगगोल ने मणिपुर के 37 विधायकों और केंद्रीय विदेश और शिक्षा राज्य मंत्री आरके रंजन सिंह समेत दो सांसदों को इंफाल शहर के बीच मौजूद मैतेई राजाओं के महल, कांगला किले में एक बैठक के लिए बुलाकर शक्ति प्रदर्शन किया। इसमें सभी पार्टियों के मैतेई विधायक शामिल थे।
तेंगगोल प्रमुख नगांगबाम ने समूह की मांगे सबके सामने रखीं, जिनमें एक थी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) को अपडेट करना -- यह ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा भारत सरकार अवैध प्रवासियों की पहचान करने और उन्हें बाहर रखने की उम्मीद करती है।
तेंगगोल ने कुकी-ज़ो सशस्त्र समूहों के साथ संघर्ष विराम को रद्द करने, म्यांमार के शरणार्थियों को मिजोरम में स्थानांतरित करने, भारत-म्यांमार सीमा पर बाड़ लगाने, मणिपुर से असम राइफल्स को हटाने और "अवैध प्रवासियों" को अनुसूचित जनजातियों की सूची से हटाने की भी मांग की। इस कदम से म्यांमार से आए कुकी-ज़ो लोग भारत सरकार की नीतियों का लाभ नहीं ले सकते। उपस्थित विधायकों और सांसदों ने इन मांगों का समर्थन करने की प्रतिबद्धता जताई थी।
मैतेई लीपुन का गठन भी हाल ही में हुआ है। माना जाता है कि यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की विचारधारा से प्रभावित है, जो भाजपा सहित कई हिंदूवादी संगठनों के समूह का स्रोत है। मैतेई लीपुन के नेता खुले तौर पर राज्य के मुख्यमंत्री और भाजपा नेता बीरेन सिंह का समर्थन करते हैं। सिंह खुद भी मैतेई समुदाय से हैं।
मैतेई लीपुन और अरामबाई तेंगगोल दोनों पर कुकी नेता उनके लोगों के खिलाफ मैतेई समुदाय द्वारा सशस्त्र हमलों का नेतृत्व करने का आरोप लगाते हैं। जहां अरामबाई तेंगगोल का झुकाव हिंदू धर्म से अलग एक मजबूत मैतेई राष्ट्रवाद की ओर है, वहीं मैतेई लीपुन स्पष्ट रूप से आरएसएस और भाजपा के नेतृत्व वाले हिंदुत्व अभियान के साथ जुड़ी है।
मैतेई लीपुन के प्रमुख प्रमोत सिंह ने मुझसे कहा, "हम [मैतेई] सनातन धर्म के अनुयायी हैं... अगर मैतेई विलुप्त हो जाते हैं तो मणिपुर में सनातन धर्म भी उसी तरह खत्म हो जाएगी जैसे कश्मीर से पंडित चले गए हैं।"
प्रमोत सिंह कश्मीरी पंडित समुदाय का जिक्र कर रहे थे। कश्मीर में रहने वाले उच्च जाति के इस ब्राह्मण समूह को 1990 के दशक में कश्मीरी सशस्त्र समूहों द्वारा उत्पीड़न और हिंसा के खतरे के बीच पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा था।
इसके विपरीत, मैतेई पुनरुत्थानवादी इस समुदाय को शेष भारत से अलग मानते हैं। उनका मानना है कि इस समुदाय की अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान है, और इनका कांगलेईपाक नामक एक पूर्व मणिपुरी साम्राज्य था जिसका 1949 में जबरदस्ती भारत में विलय कर दिया गया था।
उक्त प्रेजेंटेशन में जातीय हिंसा के राजनैतिक और व्यावसायिक आधारों, केंद्र और राज्य सरकारों की भूमिका, सत्तारूढ़ भाजपा, और असम राइफल्स की अपनी विफलताओं और कथित पूर्वाग्रह पर कुछ नहीं कहा गया है।
प्रेजेंटेशन में असम राइफल्स ने संघर्ष को तीन चरणों में विभाजित किया है -- "इनिशिएट", "म्यूटेट" और "स्टेलमेट"। इसमें बताया गया है कि इन चरणों के दौरान हिंसा की प्रकृति और चरित्र में क्या बदलाव आया।
छह महीने की मेरी रिपोर्टिंग से मुझे यह पता लगाने में मदद मिली कि अर्धसैनिक बल के प्रेजेंटेशन में कौनसे विवरण दिए गए हैं और कौनसे नहीं।
इनीशिएशन, यानी शुरुआत
बीरेन सिंह की राजनैतिक तानाशाही, पोस्ता की खेती पर सख्त रुख, अवैध आप्रवासन, कुकीलैंड की मांग और मैतेई पुनरुत्थानवाद, वर्तमान संघर्ष के यह अंगारे लंबे समय से सुलग रहे हैं।
लेकिन अप्रैल (2023) में एक चिंगारी ने इन अंगारों को भड़का दिया। इस अवधि को असम राइफल्स के प्रेजेंटेशन में "इनिशिएट" कहा गया है।
उस महीने की शुरुआत में, मणिपुर उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार से मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल करने की याचिकाओं पर विचार करने के लिए कहा था -- इस संवैधानिक प्रावधान से सूचीबद्ध समुदाय को आदिवासी समुदायों के लिए योजनाओं का लाभ मिलता है, मणिपुर के मामले में, कुकी प्रभुत्व वाले पहाड़ी इलाकों में संपत्ति के स्वामित्व का अधिकार। मणिपुर भूमि राजस्व और भूमि सुधार अधिनियम 1960 केवल अनुसूचित जनजातियों को पहाड़ी क्षेत्रों में जमीन खरीदने की अनुमति देता है।
मणिपुर में शीर्ष जनजातीय सिविल सोसाइटी संगठन, ऑल ट्राइबल स्टूडेंट्स यूनियन मणिपुर द्वारा जनजातीय बहुल पहाड़ी जिलों में 'एकजुटता मार्च' के आह्वान पर, 3 मई को सेनापति, उखरुल, कांगपोकपी, तामेंगलोंग, चूड़ाचांदपुर, चंदेल और टेंग्नौपाल में रैलियां आयोजित की गईं।
चूड़ाचांदपुर शहर में जब मार्च समाप्त हो रहा था, तब खबर फैल गई कि एंग्लो-कुकी सेंटेनरी गेट के सामने किसीने टायर जला दिया है। इसे अंग्रेजों के खिलाफ 1917-1919 के कुकी विद्रोह की याद में बनाया गया था।
इसके बाद, कुछ युवा हथियार लेकर गेट के पास पहुंचे। आउटलुक पत्रिका की रिपोर्ट के अनुसार, जल्द ही यह बात फैल गई कि "उग्रवादी" भीड़ को भड़का रहे हैं। कुछ ही घंटों में पूरे राज्य में अफवाहें फैल गईं कि कुकियों की भीड़ मैतेई लोगों के घरों में तोड़फोड़ कर रही है।
असम राइफल्स के अधिकारियों की प्रेजेंटेशन में कहा गया है कि 3 मई से शुरू होने वाली हिंसा की अवधि में "तीव्र दंगे" हुए, लोगों को "चुनकर निशाना बनाया गया" और भीड़ का "नेतृत्व नागरिक सेनाओं ने" किया।
कस्बों में भीड़ का उपद्रव हो रहा था, विशेषकर राजधानी इम्फाल में, जो मैतेई आबादी की बहुलता वाली घाटी में स्थित है।
“3 मई की रात 8 बजे काली शर्ट पहने लोगों ने हम पर हमला किया। हमने खाली गोलीबारी की, जिससे उन्हें पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा, लेकिन सिर्फ कुछ समय के लिए,'' 43 वर्षीय एल नगमपाओ खोंगसाई ने कहा, जो तब इंफाल के खोंगसाई वेंग क्षेत्र में रह रहे थे -- यह मुख्य रूप से कुकी-ज़ो क्षेत्र है।
खोंगसाई, जो स्वयं एक कुकी-ज़ो हैं, बताते हैं कि भीड़ ने सुरक्षा बलों के दबाव के बावजूद वहां पर हमला जारी रखा। “वे कह रहे थे कि कुकियों को मार देना चाहिए, और पत्थर फेंक रहे थे।"
खोंगसाई अपने परिवार के साथ अपनी जान बचाने के लिए भागे और पास के एक स्कूल में छिप गए। घाटी के हजारों अन्य लोगों की तरह, वह भागकर कुकी-ज़ो-प्रभुत्व वाले चूड़ाचांदपुर जिले में पहुंच गए।
पहाड़ी इलाकों में और तलहटी के करीब, भीड़ ने मैतेई इलाकों पर हमला किया। वेरेपम रामेश्वोरी, जो गर्भवती थीं, उन्हें भी अपने गांव से भागने के लिए मजबूर होना पड़ा। "हमारा गांव [बिष्णुपुर जिले में] त्रोंगलाओबी मनिंग लीकाई की तलहटी में है और कुकी गांवों से घिरा हुआ है। 3 मई को गोलीबारी शुरू हुई.... [कुकी लोगों] के पास अत्याधुनिक हथियार थे और उन्होंने हम पर गोलीबारी शुरू कर दी और हमारे पास बचाव के लिए कोई हथियार नहीं था, हम वहां से भाग गए और एक रिश्तेदार के घर में शरण ली," उन्होंने कहा।
असम राइफल्स के अनुमान के अनुसार, 3 मई से 23 मई के बीच 79 कुकी-ज़ो और 18 मैतेई व्यक्तियों की जान चली गई। इस अवधि में पुलिस स्टेशनों पर कई हमले हुए और हथियारों की लूट की गई। असम राइफल्स के आकलन के मुताबिक कुल 5,668 हथियार लूटे गए।
“[राज्य सरकार] ने हथियारों की लूट होने दी। मेरा मतलब है, यह साफ है क्योंकि लोगों के लिए इसी तरह पुलिस स्टेशनों में प्रवेश करना और हथियार ले लेना असंभव है," इलाके में सुरक्षा और खुफिया अभियानों से परिचित एक सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी ने मुझसे कहा।
"तो, मैतेई नागरिकों और विद्रोही समूहों को हथियार मिल गए थे, और उन्होंने शहर में निगरानी रखनी शुरू कर दी थी...जवाब में, दूसरे पक्ष ने महसूस किया कि एसओओ (संघर्ष विराम) हथियार रखने वाले लोगों को बाहर निकलना चाहिए और कुकियों के बीच हथियार बांटने चाहिए," उन्होंने कहा।
सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशंस या एसओओ, कुकी-ज़ो सशस्त्र समूहों, केंद्रीय सरकार और मणिपुर सरकार के बीच हस्ताक्षरित एक शांति समझौता है। एसओओ समझौते के अनुसार कुकी-ज़ो मिलिशिया के कैडर को निर्दिष्ट शिविरों में रहना होता है और उनके सभी हथियार राज्य की देखरेख में शिविर के केंद्रीय शस्त्रागार में रखे जाते हैं।
उक्त अधिकारी ने कहा, "तो लोग पूरी तरह दो खेमों में बंट गए थे और शुरुआत में यही वह समय था जब राजनैतिक नेतृत्व को बहुत सख्ती से कार्रवाई करनी चाहिए थी।"
लेकिन ऐसा नहीं हुआ। असम राइफल्स के प्रेजेंटेशन में कहा गया है कि, संघर्ष फैलता गया और इसने दूसरा रूप ले लिया।
8,000 से अधिक शिकायतें
द रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने 8,169 प्राथमिकियों, यानी फर्स्ट इंफॉर्मेशन रिपोर्ट (एफआईआर) का विश्लेषण करके प्रारंभिक संघर्ष की अवधि को फिर से समझने का प्रयास किया -- इनमें से 5,818 एफआईआर मई में और 2,351 जून में दर्ज किए गए थे।
एफआईआर नागरिकों या पुलिस द्वारा दर्ज की गई पहली शिकायत होती है, जिसके आधार पर पुलिस अपराध की जांच करती है।
एक प्राथमिकी 3 मई को दर्ज की गई थी, जिसमें दोनों समुदायों के बीच हिंसा का शुरुआती कारण बताया गया था। एफआईआर के अनुसार: “बड़ी संख्या में कुकी और मैतेई युवा, जिनकी संख्या लगभग 1,500 थी, एक-दूसरे से भिड़ गए और टोरबुंग बांग्ला में दोनों समुदायों के कई घरों में तोड़फोड़ की और उन्हें आग के हवाले कर दिया। करीब 300 घर और कुछ निजी वाहन भी दंगाइयों ने जला दिए थे। पुलिसकर्मियों ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए कुछ राउंड आंसू गैस के धुएं वाले बम और अन्य गोला-बारूद दागे।"
जैसा कि बताया गया है, हथियारों की लूट 4 मई को शुरू हुई और पहली घटना इंफाल में मणिपुर पुलिस प्रशिक्षण कॉलेज में दर्ज की गई। एफआईआर के अनुसार, "एक बहुत बड़ी भीड़ ने संतरी को कब्ज़े में कर आर्म कोटे के कमरे का ताला तोड़ दिया और बड़ी संख्या में हथियार और गोला-बारूद लूट लिया", जिसमें अत्याधुनिक स्वचालित बंदूकें -- 157 इंसास राइफलें, 54 एसएलआर राइफलें और एक एके-47 राइफल -- शामिल थीं। हथियारों की लूट 31 मई तक जारी रही, जैसा कि इन 8,169 प्राथमिकियों में दर्ज है।
संघर्ष के पहले दो महीनों में, तोड़-फोड़ के 7,831 मामले और ऐसी घटनाएं सामने आईं जहां किसी स्थान के निवासियों को भागने के लिए मजबूर होना पड़ा। इसके अलावा, हत्या, मारपीट, यौन उत्पीड़न, शारीरिक क्षति और लापता व्यक्तियों के 189 मामले और हथियारों की सामूहिक लूट के 79 मामले भी दर्ज किए गए।
कई एफआईआर लगभग एक जैसी या समान थीं। उदाहरण के लिए, 10 मई को इम्फाल ईस्ट जिले के सागोलमंग पुलिस स्टेशन में दर्ज की गई 74 प्राथमिकियों में एक जैसी शिकायत थी, "लगभग 1,000 की संख्या में कुछ अज्ञात लोग हथियार और घातक असलहे लेकर अलग-अलग गांवों से आए। संभवतः कुकी समुदाय के इन लोगों ने [जगह का नाम] में प्रवेश किया और संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के साथ घर को भी जला दिया"। शिकायतों में केवल स्थान के नाम और क्षतिग्रस्त वस्तुओं की सूची में बदलाव किया गया था।
विरोधी कुकी-ज़ो पक्ष द्वारा दर्ज की गई पुलिस शिकायतों में भी इसी तरह की प्रवृत्ति देखी गई।
“अगर 40 घरों वाला एक गांव जलाया गया तो 40 शिकायतें दर्ज होंगी,” एक दूसरे पुलिस अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा। उनके अनुसार, एक विशेष जांच दल के नेतृत्व में की जा रही जांच में मदद के लिए सभी "समान" मामलों को मिला दिया गया था।
दूसरा चरण
असम राइफल्स के प्रेजेंटेशन के अनुसार, मई के अंत से संघर्ष का चरित्र बदलना शुरू हो गया।
इसी समय केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने संघर्ष विराम कराने के लिए मणिपुर की चार-दिवसीय यात्रा की। तब तक केंद्र सरकार ने राज्य के सभी सुरक्षा और पुलिस ऑपरेशन्स के लिए एक केंद्रीय अधिकारी को नियुक्त कर दिया था। इस अभूतपूर्व कदम से राज्य पुलिस और संघीय अर्धसैनिक बल और सेना को एक कमान के तहत लाया गया।
केंद्र सरकार किसी राज्य सरकार को बर्खास्त कर, राज्य के कामकाज का नियंत्रण अपने हाथ में ले सकती है यदि उसे लगता है कि "संवैधानिक मशीनरी" विफल हो गई है। संविधान में संघीय सरकार की जिम्मेदारी है कि वह "राज्य को बाहरी आक्रमण और आंतरिक अशांति से बचाए"।
लेकिन इस मामले में केंद्र सरकार ने राज्य सरकार पर भरोसा जताया और इनमें से किसी भी संवैधानिक प्रावधान का इस्तेमाल नहीं किया।
एक और अभूतपूर्व कदम में सरकार ने दोनों समुदायों के बीच एक बफर ज़ोन बनाकर मैतेई प्रभुत्व वाले क्षेत्रों से कुकी-ज़ो बहुल इलाकों को विभाजित कर दिया और अपने सशस्त्र बलों के माध्यम से इस सीमा को लागू करके हिंसा रोकने की कोशिश की।
लेकिन शाह की यात्रा, एकीकृत फ़ेडरल पुलिसिंग कमांड और बफर जोन लागू करने की रणनीति विफल रही।
प्रमुख कुकी-ज़ो या मैतेई बहुल कस्बों में हिंसा कम हो गई लेकिन यह ग्रामीण क्षेत्रों में फैल गई। राजधानी इंफाल की घाटी से लेकर कुकी-बहुल पहाड़ियों तक फैले ये ग्रामीण क्षेत्र छोटी-छोटी बस्तियों, गांवों और छोटे कस्बों से बने हैं, जहां मैतेई और कुकी लोग पारंपरिक रूप से एक-दूसरे के बगल में रहते हैं।
अब, दोनों समुदायों के गांव दोनों पक्षों के सशस्त्र समूहों के हमलों की चपेट में आ गए। जबरन जातीय क्षेत्र बनाने की लड़ाई शुरू हो गई थी।
यह चरण 23 मई से 15 जून तक चला।
सितंबर की एक रात, जब मैंने मैतेई-प्रभुत्व वाले इंफाल पश्चिम जिले की सीमा पर स्थित सिंगदा कदांगबंद के मैतेई गांव का दौरा किया, तो यहां के निवासियों ने मुझे बताया कि हिंसा के छह महीनों के दौरान उनकी रातों की नींद हराम हो चुकी थी।
165 घरों के लगभग 170 पुरुष बारी-बारी से गांव के चारों ओर स्थापित 10 बंकरों की चौबीसों घंटे सुरक्षा कर रहे थे।
फिर जून की शुरुआत में मैतेई विद्रोहियों ने ग्रामीणों से संपर्क किया। "वे हमारी मदद के लिए आगे आए, लेकिन हमने उन्हें आने नहीं दिया। हमें डर है कि बाद में वे हमारा फायदा उठाएंगे," निगरानी का आयोजन कर रहे एन बोबी सिंह ने कहा।
ऐसा तब है जब असम राइफल्स की प्रेजेंटेशन में स्वीकार किया गया है कि दोनों समुदायों के विद्रोही समूह हिंसा में शामिल हो गए थे।
मणिपुर राज्य का एक लंबा और अशांत इतिहास रहा है, जिसमें इसे अपना घर कहने वाले विभिन्न जातीय समुदायों के 30 से अधिक सशस्त्र समूह अलग-अलग देश बनाने से लेकर जातीय पहचान के आधार पर भारत के भीतर नए राज्यों के निर्माण तक की मांगों के लिए लड़ते रहे हैं। (सूची देखें)
उनमें से कई पड़ोसी देश म्यांमार से संसाधन लेते हैं और वहां डेरा डालते हैं। विशेष रूप से सरकार के सशस्त्र बलों के निशाने पर रहे मैतेई सशस्त्र समूहों का प्रभाव 2000 के दशक से कम हो रहा है। और अधिकांश कुकी-ज़ो सशस्त्र समूहों ने सरकार के साथ एसओओ समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं।
शोधकर्ताओं ने बताया हैं कि कैसे कुकी समूहों की मदद से भारतीय सशस्त्र बल रणनीतिक रूप से दूसरे समुदायों के सशस्त्र गुटों को अलग करते हैं। इस आरोप के अलावा मानवाधिकार उल्लंघनों और गैरकानूनी हत्याओं के ट्रैक रिकॉर्ड ने मैतेई समुदाय के बीच असम राइफल्स की प्रतिष्ठा को काफी खराब कर दिया है। उन्हें पक्षपाती माना जाता है, जबकि राज्य की पुलिस को कुकी समुदायों के प्रति पूर्वाग्रह के आरोपों का सामना करना पड़ता है।
इस हिंसा ने कुकी और मैतेई सशस्त्र समूहों को पुनर्जीवित कर दिया है, इसके अलावा नए मैतेई सशस्त्र गुटों का उदय हुआ है।
वहीं युद्धविराम समझौते से बंधे कुकी-ज़ो समूहों ने प्रारंभिक चरण से ही हथियार उठाने वाले नागरिकों की मदद करना शुरू कर दिया था।
"सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशंस समूहों के कुछ [कैडरों] ने हमें बंकर बनाने में मदद की क्योंकि उनके पास इसका अनुभव है," कमेटी ऑन ट्राइबल यूनिटी की रक्षा समिति के संयुक्त सचिव, 35 वर्षीय मिमिन सिथलू ने कहा। यह कमेटी मुख्य रूप से कांगपोकपी जिले में काम करने वाले सिविल सोसाइटी संगठनों का एक समूह है। वहां इन बंकरों का प्रबंधन देखने का काम सिथलू का है।
असम राइफल्स के दस्तावेज़ में कहा गया है कि इन कैडरों की भागीदारी ने "वीबीआईजी पर दबाव डाला" कि वे भी मैतेई समाज की ओर से लड़ने के लिए संघर्ष में शामिल हों। वीबीआईजी, यानी वैली-बेस्ड इंसर्जेंट ग्रुप्स, से मतलब है घाटी-स्थित पुराने मैतेई सशस्त्र समूह।
प्रेजेंटेशन में कहा गया है कि उन्होंने "हथियार और गोला-बारूद उपलब्ध कराना", अपना आधार मजबूत करना और "भर्ती और वैचारिक समर्थन बढ़ाना" शुरू किया।
जैसे-जैसे दोनों ओर के सशस्त्र गुटों ने विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों से युवाओं की भर्ती और प्रशिक्षण बढ़ाना शुरू किया, कुछ इलाकों में संघर्ष कम होकर फिर से बढ़ गया। स्थिति अब स्टेलमेट, यानी गतिरोध पर पहुंच गई थी।
गतिरोध
कांगपोकपी जिले की सीमा पर खोदी गई ट्रेंचों से लगभग 15 किमी दूर स्थित हैपी गांव में, जांगगौलुन किपजिन के परिवार ने 25 दिसंबर को कोई उत्सव नहीं मनाया।
सितंबर में मेरी मुलाकात 19 वर्षीय जांगगौलुन किपजिन से एक बंकर में हुई। "हमें अपने गांव में 5-6 दिन पहले प्रशिक्षण दिया गया था," उसने अपनी राइफल उठाए हुए मुझसे कहा।
क्रिसमस के दिन, हैपी में अपने घर के अंदर बैठी जांगगौलुन की मां ने मुझसे कहा: "कौन अपने बेटे को मोर्चे पर भेजने से नहीं डरेगा, हम केवल प्रार्थना कर सकते हैं कि वह सुरक्षित रहे"।
सिंगदा कदंगबंद जैसे गांवों में मैतेई नागरिकों को भी इसी तरह की दुविधा का सामना करना पड़ा। रातें अंतहीन होती हैं और दिन निरंतर अनिश्चितता के बीच बीतते हैं।
नाम न बताने की शर्त पर एक ग्रामीण ने सितंबर में मुझसे कहा, "60 साल से ऊपर के लोगों को छोड़कर, सभी से 24 घंटे की शिफ्ट करने की उम्मीद की जाती है। मेरा एक साल का बच्चा है और मैं वेल्डर का काम करता हूँ। मुझे डर लग रहा है लेकिन हमारे पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं"।
“इसका प्रभाव लंबे समय तक रहेगा, खासकर युवा और आगामी पीढ़ियों पर। उनके पास अपने समुदाय की रक्षा करने के लिए बंदूकें हैं, लेकिन इसका असर यहीं तक सीमित नहीं रहेगा। लोग अपनी व्यक्तिगत दुश्मनी साधने के लिए इनका उपयोग कर सकते हैं, फिर कुछ बेरोजगार लोग जबरन वसूली शुरू कर सकते हैं, फिर गलत पहचान के कारण हत्या और फिर बदला लेने के लिए हत्या के मामले हो सकते हैं -- यह एक दुष्चक्र बनने जा रहा है," सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल कोनसम हिमालय सिंह ने मुझसे कहा।
लेफ्टिनेंट जनरल सिंह ने जो कहा वह दिसंबर में होना शुरू हो गया था, जब मैंने आखिरी बार मणिपुर से रिपोर्टिंग की थी। घाटी और पहाड़ियों में बंदूकधारी लोगों के वीडियो सोशल मीडिया पर फैल गए थे, सोशल मीडिया पर सशस्त्र 'वालिंटियर्स' की सराहना की जा रही थी, जबकि निजी तौर पर कई लोगों को चिंता थी कि इन युवाओं सशस्त्र गुट लालच देकर भर्ती कर सकते हैं। और जैसे-जैसे अस्थिरता की स्थिति स्थाई बनती जा रही है, यहां हमले, प्रतिशोध और आपसी युद्ध का कभी न खत्म होने वाला चक्र शुरू हो सकता है।
ये सब तब हुआ जब केंद्रीय सरकार के अर्धसैनिक बलों, सेना और राज्य पुलिस के 60,000 से अधिक सशस्त्र जवानों ने राज्य के एक बड़े क्षेत्र को दो हिस्सों में विभाजित करते हुए एक 'बफर जोन' लागू किया, जिसे पार करने में दोनों समूह डरते थे।
19 अप्रैल को देश के कई अन्य हिस्सों के साथ-साथ मणिपुर में भी मतदान होगा, जबकि दोनों समुदायों के बीच संघर्ष जारी है।
“मुख्यमंत्री को हटा देना चाहिए था। वह राज्य [सरकार] के प्रमुख हैं और यदि उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है... तो सेना और पुलिस को आगे बढ़कर क्षेत्र पर नियंत्रण कर लेना चाहिए था... लेकिन आखिरकार इसे होने दिया गया क्योंकि जब तनाव बढ़ता है, तो आपका वोट भी बढ़ता है," उक्त सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी ने कहा।
इस श्रृंखला के दूसरे भाग में मणिपुर में तनाव बनाए रखने में नशीली दवाओं के व्यापार, राजनीति और सशस्त्र समूहों की भूमिका पर प्रकाश डाला जाएगा।
(हर्षिता मनवानी, मोहन राजगोपाल, आर्यन चौधरी, वेदांत कोट्टापल्ले के इनपुट के साथ)